Jankriti International Magazine Jankriti Issue 27-29, july-spetember 2017 | Page 61

Jankriti International Magazine / जनकृ सत अंतरराष्ट्रीय पसिका ISSN : 2454-2725
चने और एक एपल् ज्यूस की बोतल था । मैं प्लामस्टक हटा कर सॉ ंडमवच खाकर एपल ज्यूस पी ली । कु छ फ्रे श लगा । २ घंटे एयर पोटा में बैठे बैठे हल्की सी भूख भी लगी थी । मन कर रहा था की कु छ चाय या कॉफी हो जाए । हमारी एक दोस्त ने एयर पोटा के अंदर एक कॉफी शॉप में पूछा तो उसकी दाम एक अच्छी रेस्तराँ की अच्छी चाय से भी ४गुना अमधक था । मफरभी जरूरत तो जरूरत होते हैं चाहे छोटी हो या बड़ी । हमने कॉफी पी कर ही जाहज का इंतजार मकया ।
मैं कु छ देर आँख बंद कर सोने की कोमशश की लेमकन शाम का वक्त नींद कहाँ आनी थी । मन न जाने कहाँ कहाँ घूम कर आ जाती है । मफर मेरे मन की पटल पर घर और बच्चों की तमस्वरें मखलने लगी । वैसे मेरे बच्चे बड़े हो चुके हैं लेमकन माँ बाप के मलए बच्चे तो बच्चे ही होते हैं चाहे मकतने भी बड़े हो जाए । बेटा श्रावि तो अपनी मजम्मेदारी खूब समझता है लेमकन बेटी मेघा अब भी नादान है और तो और माँ बाप के मलए बेटी एक कागज की फू ल की तरह होती है इसमलए वे बहूत नाजूक से संभाल कर मदल से लगाए रखते हैं । आमखर बेटी माँ की मदल की टुकु डा और बाप की जान होती है । उन्हे भी दुमनया से ताल मेल बनाए रखने के मलए पढ़ा मलखा कर समाज में एक नाम और जगह बनाए रखना बहुत ही जरूरी हो गया है । समाज में स्त्री के प्रती हो रहे मानमसक शाररररक प्रताड़नाएँ माँ बाप के मदल दहला कर रख देती है । ऐसे हालात में उन्हें मशक्षा और कामबमलयत ही एक ऐसा मागा है जो उन्हें समाज में कं धे से कं धा ममला कर चलने के मलए महम्मत देती है । इसमलए हर वक्त उन्हें पढ़ाई के मलए जोर देनी पड़ती है । पर बच्चे तो बच्चे ही हैं , उनके जो मन में आया उन्हें वही सही लगता है । यही ख्याल अक्शर मन में आती है न जाने पढ़ने बैठी होगी की नहीं ।
छत पर बैठे बैठे शाम की सुनहरा आकाश को ताकती रहती थी । आकाश के बदलते रंगों को मनहारती रहती थी । जब सूरज ढ़लने लगता मदन का उजाला अंधेरे में छु पने लगता तब आकाश में चमकती वह सांझ तारा मेरा सारा ध्यान अपने तरफ खींच लेता । आकाश में वह अके ला तारा जैसे मुझे टुकु रू टुकु रू देखता था । जब उस चमकते मसतारे को देखती थी मैं अपना पलक छपकाना भूल जाती । मेरा मन चंचल संमंदर जैसे उछलने लगता था । बहुत देर तक उस तारे को देखती रहती थी । उस सांझ तारा से जैसे एक बंधन सी जुड़ गई हो । कभी लगता उस तारे से कोई जमीन पर उतर आए और मेरे हाथ पकड़ कर उस दूर आकाश में सैर कराने ले जाए । जी करता उस अनंत नीली अंबर की इस छोर से लेकर उस छोर तक उस तारे की आँखों में आँखें ड़ाल कर पूरी आसमान की सैर करलू ँ । इतने में मेरी पास बैठी संतोर्ष दी और लक्षमी मखलमखला कर हँसने लगी । मेरा ध्यान सोच से हट कर उन पर कें मद्रत हो गई । कु छ समय हंसी मजाक और शेर शायरी चलती रही । पानी पी कर वक्त देखा अभी काफी वक्त था अपने गम्य स्थल पर पहूँचने को ।
जब मैने आकाश की ओर देखा मेरे सामने नीली आकाश बाहें फै लाए नज़र आ रहा था । नीचे देखू ँ तो जैसे सफे द बादलों की चद्दर मबखेर पड़ी थी । जगह जगह दूध की गहरी रंग जैसी बादल कहीं गाढ़ी तैरती मलाई जैसी बादल तो कहीं हल्के भूरे रंग के बादल । कहीं कहीं हवा से इधर उधर उड़ती हुई कपास जैसे बादल । दूर कहीं ड़ु बते सूरज की सुनहरी रोशनी बादल के उपर से प्रस्फू मटत हो रही थी । कहीं लाल तो कहीं पीले रंग से सुसज्जीत मदख रही थी जैसे की शादी के जोड़े में हँसती खेलती दुल्हन । मैने आँखे पसार कर दूर गगन की ओर देखा दूर नीली अंबर पर मुस्कु राती हुई वही मसतारा नज़र आई जो मेरी बचपन की सखी सहेली सबकु छ थी । मेरे होंठों पर एक हमल्क सी मुस्कु राहट मखल गई । एक पल तो मन मकया हवाई जाहज की दरवाजा खोल कर बाहर चली जाउँ उन
मुझे मेरी बचपन याद आ गई । मैं भी बचपन में कहाँ पढाई करती थी । कहने को तो मकताब गोद में रहती थी पागल मन कहीं ओर भटकता रहता था । बादलों के बीच जो की मुझे हाथ पसार कर बुला रहे Vol . 3 , issue 27-29 , July-September 2017 . वर्ष 3 , अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017