Jankriti International Magazine Jankriti Issue 27-29, july-spetember 2017 | Page 44

Jankriti International Magazine / जनकृ सत अंतरराष्ट्रीय पसिका ISSN : 2454-2725
भी व्यमक्तत्व को मवकृ त नहीं करता , यही प्रौढ़ता इस उपन्यास की मवशेर्षता है ।
इस उपन्यास में कई कहामनयाँ साथ-साथ चलती हैं । इसके लगभग पात्र मध्य वगा के हैं , जो अपने व्यमक्तगत जीवन की मानमसक समस्याएँ रहते हैं । नामयका एक जगह कहती है- “ मेरे अंदर का उत्साह और आकांक्षाएँ क्यों मरती जा रही हैं ? मजजीमवर्षा क्यों कु ं द हो रही है ? इच्छाएँ क्यो खोती जा रही है ?’’ ( पृ . - 44 )… वह आगे मफर कहती है- “ मैं अपने आप से डर जाती हूँ । कहीं यह पागलपन की पहली सीढ़ी तो नहीं है ?” ( पृ . -45)... कथा नामयका की ऐसी संवेदनाएँ इनके मनस्ताप , पीड़ाएँ सामामजक स्तर पर सच्ची और मवश्वसनीय हैं ।
इस उपन्यास में नामयका के मामा की पत्नी की कहानी भी कमतर नहीं है । मामा के पत्नी के मलए , पमत महज एक सामामजक मय ादा है । हमारे सामामजक ढाँचें पर व्यंग करती हुई नामयका कहती है- “ यौनाकांक्षा से पागल उनकी पत्नी अपनी यौन इच्छाओं को धान छी ँटने की तरह है , छींटती रहती है और उसकी उपज बेमफ़क्र होकर काटती है- मफर भी उसके महस्से में तीन बच्चे आए हैं । मुझे समाज और समामजक प्रपंचों से घृिा होती है ।’’ ( पृ . -56) सामामजक ढाँचें के कारि कथा नामयका को अपनी इच्छा मारनी पड़ती है । माँ बनने की इच्छा होते हुए भी वह नहीं बनती है । क्योंमक वह कु ँ आरी है । यह बात समझाने के मलए नामयका से उसका मामा कहता है “ भावुक मत बनो । यह मबच्छू और साँप का संसार है ... आँधी और बाढ़ का ... अँधेरा और कु रूपता का संसार है यह ... यह आदमी ही आदमी का संसार है ।’’ जीवन की वास्तमवकता को मदखा कर लेमखका ने स्त्री के एक अलग स्वरूप को भी पाठकों के समक्ष रखा है । नामयका के पड़ोस में एक नवमववामहता रहती है । वह अपने शराबी पमत की आदतों से परेशान रहती है । वह तमाम यंत्रिाएँ
चुपचाप सहती है , नए मक्षमतज की तलाश की इच्छा भी करती है , मकन्तु नजरें सदैव जमीन की ओर ही झुकाए रखती है और ससुराल को स्वगा समझती रहती है । इस समाज की स्त्री अपनी इच्छा को कै से दफ़नाती है , यह उपन्यास उसका जीवन्त मचत्रि करता है ।
इस उपन्यास की भार्षा काव्यात्मक है । उपन्यास के भूममका में लेमखका ने कहा है मक “ पात्रों के आस- पास का पररवेश , अपने-बेगाने , सड़कें , मखड़की से मदखते ्टश्य , कायाालय , दोस्त एवं आत्मीय- अनात्मीय ... इसमें सब सुगबुगाते हैं । मकसी का कोई नाम नहीं रखा है । नाम से क्या होगा ?’’ अथाात , पूरे उपन्यास में मकसी पात्र का नाम नहीं है ।
अंततः वानीरा मगरर के ‘ कारार्गार ’ उपन्यास में देह एवं मन के समीकरि और उसकी संवेदना को बड़े ही सूक्ष्म रूप से उके रा गया है । बड़े ही स्वाभामवक और मनभीकता से लेमखका ने नारी मन की संवेदनाओं को उजागर मकया है ; मजसे कोई पुरुर्ष रचनाकार सम्भवत : नहीं कर पाते । अमधकांश ममहला रचनाकार भी ऐसे सूक्ष्म पहलुओंको उजागर करने में असफल हो जाती हैं । स्त्री की स्वतन्त्र इच्छाओं पर वानीरा मगरर ने जो अड़तीस वर्षा पूवा मलखा ऐसे मवर्षयों पर नेपाली भार्षा में आज भी कम देखने को ममलता है । इस उपन्यास में व्यमक्त की अमस्मता , अके लेपन , मजजीमवर्षा व मृत्यु- बोध के समग्र भाव को बड़े ही सृजनात्मक रूप से अंमकत मकया गया है । उपन्यास में इस खोखले समाज के प्रमत व्यंनय और असन्तुमसे मचमत्रत मकया गया है । लगभग चार दशक पूवा मलखे गए इस उपन्यास में मचमत्रत समाज आज के सामामजक वातावरि के मलए कही अमधक प्रासंमगक है ।
Vol . 3 , issue 27-29 , July-September 2017 . वर्ष 3 , अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017