Jankriti International Magazine Jankriti Issue 27-29, july-spetember 2017 | Page 43

Jankriti International Magazine/ जनकृसत अंतरराष्ट्रीय पसिका मकसी भी लेमखका द्वारा रमचत मकसी भी उपन्यास म इतनी स क्ष् ू मता से मचत्रि नहीं मकया गया है। इस उपन्यास में आजन्म क ँ ु वारी रहने वाली नारी क अरमानो और भावनाओ ं को ग भ ं ीरता से दशााने का प्रयत्न मकया गया है। हर स्त्री की इच्छा होती है मक समाज में उसका अपना एक घर हो, पररवार हो, मजसमें उसकी एक पहचान हो। आलोच्य उपन्यास की नामयका भी यही सोचती है ; परंतु हमारे समाज में आज भी स्त्री अपनी इच्छाओ के अन क ू ल नहीं चल पाती। असल में मस्त्रयों के प्रमत सामामजक नज़ररया और मस्त्रयों की शारीररक अपेक्षाओ ं में फका होता है। इस तथ्य को हम फ़्रॉयड के मशष्ट्य काला युङ के कथन के अन स ु ार समझ सकत हैं। काला य ङ ु के अनुसार साम म ू हक अवचेतन मन का मसद्धा त ं ही सवोपरर है। अवचेतन मन इतना शमक्तशाली होता है मक वह इगो और स प ु र इगो का अमतक्रमि कर जाता है। अवचेतन मन कई बार पररमस्थमत के अन स ु ार मौका पाकर इगो और स प ु र इगो को दबा देता है और सामामजक मयाादा भ ग ं कर क ही दम लेता है। इसमलए व्यमक्त के ‘अहम ’ ् और ‘नैमतक मन’ द्वारा मनय म ं त्रत मकए जाने के बावज द ू अवचेतन मन मौका पाते ही प्रबल हो उठता है। मन ष्ट् ु य अपने आमदम स्वरूप तथा प्रकृ मत के अन रू प पामश्वक वृमत्त में मलप्त हो जाता है। व्यमक्त का ‘अहम ’ ् मजस प्रकार सामामजक मयाादा को स त ं म ु लत रखता है, वहीं अवचेतन मन सामामजक मयाादा के हनन की प्रवृमत्त म स्वयं को अमग्रम पंमक्त में रखता है। वानीरा मगरर ने अपने इस उपन्यास में एक नारी क शारीररक लालसा को ग भ ं ीरता से दशााने का प्रयत्न मकया है। प्राकृ मतक रूप से दैमहक कामना स्त्री और प रु ु र्ष दोनों में समान रूप से रहती है। लेमकन हमारी सामामजक व्यवस्था की मवडम्बना में स्त्री की शारीररक कामनाएँ व्यक्त नहीं की जा सकती। पहले तो Vol. 3 , issue 27-29, July-September 2017. ISSN: 2454- 2725 सामामजक मयाादा के कारि वह अपने एकाकीपन को झेलती है, मफर एकाकीपन से परे शान होकर नामयका के मन में दममत इच्छाएँ उफान मारने लगती है। वह सोचती है “कै द और छटपटाहट एकद स ू रे के प र ू क ह शायद! ... मकसी म ल् ु क की युवा शमक्त को बंदीगृह म बंद करने जैसी द स ू री कोई यौन यंत्रिा हो नहीं सकती।’’ (पृ.-45) नामयका अपने मामा की बातों को याद करते हुए कहती है “मन में बंदीगृह शब्द का उच्चारि होते ही फ्लैश बैक की तरह मामा की बात प न ु ः याद आने लगती है ” (पृ .-45) वह आगे मफर सोचती है- “... प्यारी भांजी! सेक्स का सही अथ फ़्रायड और मसमोन द बोउआर की बौमद्धक प स् ु तकों को खोदकर त म ु नहीं उपजा सकती हो। अमस्तत्व सात्र और कामू के काले अक्षरों और हफ़ो में नहीं ममलेगा त म् ु हें। जीवन को समझो, बीनो, जीवन को समझने क मलए जीवन के साथ भीगना होगा। मल क न, स्टुअट ममल, माक्सा, लेमनन, माओ और गाँधी के ख्यामत क साथ आत्मसमपाि करने से क्या होगा। मसद्धा त ं और व्यवहार के पाथाक्य को समझने का प्रयास करो।... इस शरीर के धमा के स ब ं ध ं में मवश्ले र्षि त म् ु हारी मकस मकताब में है, भा ज ं ी ...?” (पृ.-45) मामा के इस वक्तव्य से नामयका काफी प्रभामवत होती है। मामा क साथ पहले तो उसका बौमधक ररश्ता बना था, मफर दोनों एक-द स ू रे के मनकट होने लगे। मामा नयारह वर्षों तक जेल में रह कर आए थे। मामा का भी भरा-प र ू ा पररवार था, मजसमें पत्नी थी... बच्चे थे... लेमकन उनके मलए अपने सारे ररश्ते-नाते खोखले बन गए थे। इन सारी बातों की जानकारी के बावज द ू नामयका न अपने मामा के साथ संबंध स्थामपत कर मलया। समाज द्वारा मदए गए संबोधन ‘मामा की रखैल ’ को नामयका बड़ी सहजता से स्वीकारती है। दोनों एक-द स ू रे स ममलकर अपने एकाकीपन द र ू करते थे। यहाँ पर मचमत्रत प रू र्ष और स्त्री का प्रेम असामामजक होते हुए वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017