Jankriti International Magazine Jankriti Issue 27-29, july-spetember 2017 | Page 417

Jankriti International Magazine / जनकृ सत अंतरराष्ट्रीय पसिका ISSN : 2454-2725
हुई थी , हालाँमक ऊपर-ऊपर से मुझे इसके बारे में कु छ भी नहीं पता था । और जब मुझे इसकी ज़रूरत महसूस हुई तो यह अचानक मेरी स्मृमत में पूरी मशद्दत से उठ खड़ी हुई ।
मुझे उस बेचारे गुलाम कृ र्षक के चेहरे पर मौजूद माँ-जैसी मृदु मुस्कान याद आई , और यह भी याद आया मक कै से उसने अपनी उँगमलयों से मुझ पर ईसाई धमा के क्रॉस का मचह्न बनाया तामक मैं हर मुसीबत से बचा रहूँ । मुझे उसका यह कहना भी याद आया , " अरे , तुम तो बेहद डर गए हो । मेरे प्यारे बच्चे , सब ठीक होगा । " और मुझे मवशेर्ष रूप से ममट्टी लगी उसकी उँगमलयाँ याद आई ंमजनसे उसने संकोचपूिा कोमलता से भर कर मेरे फड़फड़ाते होठों को धीरे से छु आ था । यमद मैं उसका अपना बेटा रहा होता तो भी वह इससे अमधक स्नेह-भरी चमकती आँखों से मुझे नहीं देखता । और मकस चीज़ ने उसे ऐसा बना मदया था ? वह तो हमारा गुलाम कृ र्षक था और कहने के मलए मैं उसका छोटा मामलक था । वह मेरे प्रमत दयालु था , इस बात का पता न मकसी को चलना था , न ही कोई उसे इसके मलए इनाम देने वाला था । क्या शायद छोटे बच्चों से उसे बहुत प्यार था ? कु छ लोगों का स्वभाव ऐसा होता है । वीरान खेत में यह मुझसे उसकी अके ली मुलाकात थी । शायद यह के वल ईश्वर ने ही ऊपर से देखा होगा मक एक रूसी गुलाम कृ र्षक का हृदय मकतने गहरे , मानवीय और सभ्य भावों से और मकतनी कोमल , लगभग मस्त्रयोमचत मृदुता से भरा था । यह वह गुलाम मकसान था मजसे अपनी आज़ादी का न कोई ख़्याल था , न उसकी कोई उम्मीद थी । क्या यही वह चीज़ नहीं थी जब कौंस्टैंमटन अक्साकोव ने हमारे देश के कृ र्षकों में मौजूद उच्च कोमट की मशसेता और सभ्यता की बात की थी ?
और जब मैं अपने मबस्तर से उतरा और मैंने अपने चारो ओर देखा तो मुझे याद है , मुझे ऐसा महसूस हुआ जैसे मैं इन दुखी ग़ुलामों को मबल्कु ल अलग मकस्म की मनगाहों से देख सकता हूँ । जैसे अचानक मकसी चमत्कार की वजह से मेरे भीतर मौजूद सारी घृिा और क्रोध पूरी तरह ग़ायब हो गए थे । चलते हुए मैं ममलने वाले लोगों के चेहरे देखता रहा । वह मकसान मजसने दाढ़ी बना रखी है , मजसके चेहरे पर अपराधी होने का मनशान दाग मदया गया है , जो नशे में धुत्त कका श आवाज़ में गाना गा रहा है , वह वही मारेय हो सकता है । मैं उसके हृदय में झाँक कर नहीं देख सकता ।
उस शाम मैं एम . से दोबारा ममला । बेचारा ! उसकी स्मृमतयों और उसके मवचारों में रूसी मकसानों के प्रमत के वल यही भाव था -- " सब के सब डाकू -बदमाश हैं । " हाँ , पोलैंड के बंमदयों को मुझसे कहीं ज़्यादा कटुता का बोझ उठाना पड़ रहा था ।
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Vol . 3 , issue 27-29 , July-September 2017 . वर्ष 3 , अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017