Jankriti International Magazine Jankriti Issue 27-29, july-spetember 2017 | Page 414

Jankriti International Magazine / जनकृ सत अंतरराष्ट्रीय पसिका ISSN : 2454-2725
जगह बनाता हुआ लोहे की छड़ों वाली मखड़की के सामने मौजूद अपने मबस्तर तक पहुँचा , जहाँ मैंने अपने हाथ अपने मसर के पीछे रख मलए और पीठ के बल लेट कर अपनी आँखें मू ँद लीं । मुझे इस तरह लेटना पसंद था ; सोए हुए आदमी को आप तंग नहीं कर सकते । और इस अवस्था में आप सोच सकते हैं और सपने देख सकते हैं ।
लेमकन मैं सपने नहीं देख सका । मेरा मचत्त अशांत था । बार-बार एम . के कहे शब्द मेरे कानों में गू ँज रहे थे । पर मैं अपने मवचारों की चचाा क्यों करूँ ? अब भी कभी-कभी रात में मुझे उन मदनों के बारे में सपने आते हैं , और वे बेहद यंत्रिादायी होते हैं । शायद इस बात पर ध्यान मदया जाएगा मक आज तक मैंने बंदी-गृह में मबताए अपने जीवन के बारे में मलमखत रूप में शायद ही कभी कोई बात की है । पंद्रह वर्षा पूवा मैंने ' मृतकों का घर ' नामक मकताब एक ऐसे काल्पमनक व्यमक्त के चररत्र पर मलखी थी जो अपराधी था और मजसने अपनी पत्नी की हत्या की थी । यहाँ मैं यह बता दू ँ मक तब से बहुत सारे लोगों ने यह मान मलया है मक मुझे बंदी-गृह इसमलए भेजा गया क्योंमक मैंने ही अपनी पत्नी की हत्या कर दी थी !
अच्छी बात यह थी मक मैं अपने मज़े के मलए इन्हें लगातार सुधारता रहता ।
इस अवसर पर मकसी कारिवश मुझे अचानक अपने बचपन का एक अलमक्षत पल याद आया जब मैं नौ वर्षा का था । यह एक ऐसा पल था मजसके बारे में मुझे लगा था मक मैं इसे भूल चुका था । पर उस समय मुझे अपने बचपन की स्मृमतयों से मवशेर्ष लगाव था । मुझे गाँव में बने अपने घर में मबताए अगस्त माह की याद आई ।
वह एक शुष्ट्क , चमकीला मदन था जब तेज़ , ठंडी हवा चल रही थी । गमी का मौसम अपने अंमतम चरि में था और जल्दी ही हमें मास्को चले जाना था , जहाँ ठंड के महीनों में हम फ़्रांसीसी भार्षा के पाठ याद करते हुए ऊब जाने वाले थे । इसमलए मुझे ग्रामीि इलाके में बने अपने घर को छोड़ने का बेहद अफ़सोस था । मैं मूसल से कू ट-पीट कर अनाज मनकालने वाली जगह के बगल से चलता हुआ गहरी , संकरी घाटी की ओर मनकल गया । वहाँ मैं घनी झामड़यों के झुरमुट तक गया मजसने उस संकरी घाटी को कौप्से तक ढँका हुआ था । मैं सीधा उन झामड़यों के बीच घुस गया , और वहाँ मुझे लगभग तीस मीटर दूर बीच की ख़ाली जगह में खेत को जोतता हुआ एक मकसान मदखा । मैं जानता था मक वह खड़ी ढलान वाली पहाड़ी पर जुताई कर रहा
धीरे-धीरे मैं भुलक्कड़पन की अवस्था में चला गया , और मफर यादों में डूब गया । बंदी-गृह में मबताए अपने पूरे चार साल के दौरान मैं लगातार अपने अतीत की घटनाओं को याद करता रहता , और
था , और उसके हाँफ़ते हुए घोड़े को बहुत प्रयास लगता था जैसे उन यादों के सहारे मैं अपना पूरा जीवन
करना पड़ रहा था । अपने घोड़े का हौसला बढ़ाने दोबारा जी रहा था । दरअसल ये स्मृमतयाँ खुद-ब-खुद
वाली मकसान की आवाज़ हर थोड़ी देर बाद तैरती हुई मेरे ज़हन में उमड़-घुमड़ आती थीं , मैं जान-बूझकर
मेरी ऊँ चाई तक पहुँच रही थी ।
इन्हें याद करने की कोमशश नहीं करता था । कभी- कभी मकसी अलमक्षत घटना से इनकी शुरुआत होती
मैं अपने इलाके में रहने वाले लगभग , और धीरे-धीरे ज़हन में इनकी पूरी जीवंत तसवीर बन सभी गुलाम मकसानों को जानता जाती । मैं इन छमवयों का मवश्लेर्षि करता , बहुत पहले
घटी मकसी घटना को नया रूप दे देता , और सबसे Vol . 3 , issue 27-29 , July-September 2017 . वर्ष 3 , अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017