Jankriti International Magazine Jankriti Issue 27-29, july-spetember 2017 | Page 390

Jankriti International Magazine / जनकृ सत अंतरराष्ट्रीय पसिका ISSN : 2454-2725
से इनकार करता है । जब बोधन के बेटे भोजराज जैसे युवकों का दल समदयों से चली आ रही ररवायतों के नाम पर दमलत समाज के साथ अपमान पूिा व्यवहार की मखलाफत करने को तैयार होता है । उस वक़्त , गाँव के सविों की भार्षा और उसमें मलपटी घृिा स्पसे उजागर होती है –“ क्यों रे कमीन , तू इतनो नकचढ़ है गओ ... दाऊ के बुलावे पे उनकी चौपाल पे नई ंगओ ? ... गाँव में रहवे है की नई... ं बोल ! जा , सीधी तरह से नगमड़या उठा के ला … अपनी जानी को बुला – मोंड़ा की बहू कोऊ बुला ... हम मबन के संग होरी खेलेंगे ... वे हमए सामने नाचेंगी … नंगी नाचेंगी ... हम मबन के गाल से गुलाल लगायेंगे ... गाल नोचेंगे ...।” 8 ( वही , पृ . 101-102 ) गाँव की सविा जमतयों का नेता रघुवीर और उसका मगरोह भोजराज और बोधन के पररवार की मस्त्रयों का जब मतरस्कार करता है तो भोजरज उसका प्रमतवाद करता है । पर इस प्रमतवाद में उसके प्राि चले जाते हैं । तलवार के एक वार से ही वह कटे पेड़ की तरह धरती पर मगर पड़ता है । रघुवीर अपने मगरोह के साथ होली खेलने की आड़ में दमलत बस्ती में खूनी खेल खेलता है । मस्त्रयों की इज्ज़त लूटने से लेकर आगजनी तक । बोधन अपने बेटे का कटा सर और चारों तरफ पसरा खूनी मंज़र देखता है तो काँप उठता है । कहानी का अंत इस मबंदु पर होता है मक पुरानी पीढ़ी का बोधन अपनी परंपरागत समझौता परस्ती वाली छमव के उलट प्रमतवाद व्यक्त करता है । िह उि भेदभाि पूणक िमाज की सखलार्त करता है जो सकिी एक िगक को सनयंता बनाए रखने के छल-छद्म को िभ्यता और िंस्कार कहता है । बोधन का अपने बेटे का कटा सर हाथ में लेने के बाद उसके समक्ष अपनी नगमड़या बजाना गंभीर मनहाताथा मलए रहता है । वह उसका वह प्रमतकार होता है , मजसे वह वह सरपंच आमद सविा समुदाय के प्रमत व्यक्त करता है –
“ तू रोज – रोज कहते रओ मक मैं अपने दरवाज़जे पे बैठके नगमड़या क्यों न बजात हों ! लै , सुन , आज मैं अपयें दरवाज़जे पे नगमड़या बाजा रओ हों ? तू ध्यान दै के सुमनए , मेए लाल , आज ऐसी नगमड़या बजौंगों जैसी कबहुँ नई बजाई । और वह सच में डूबकर बजाने लगा ।” 9 ( वही , पृ . 103 ) कहना न होगा मक यह िब कु छ हमारी िामासजक िंरचना में िामासजक और आसथकक लोकतन्द्ि के अभाि का ही प्रसतर्लन है , सजिे राजनीसतक लोकतन्द्ि के िाथ अंतभु कक्त कर देखने की जरूरत है , सििेषकर सिकािमूलक कायकिमों को लागू करने की िसदच्छाओं के िक़्त ।
ओमप्रकाश वाल्मीमक की कहानी ‘ सलाम ’( 1991 ) भी इस संदभा में अवलोकनीय है । आलोच्य कहानी में भी सलाम के रूप में एक अलोकतांमत्रक ररवायत का मज़क्र है , जो सामामजक व्यवस्था में व्याप्त जामतगत भेद – भाव के घृिामूलक व्यवहार को उजागर करती है । सलाम प्रथा के अनुसार नव मववामहत दमलत जोड़े को सविों के द्वारे- द्वारे घूमने का काया सम्पन्न करना होता है । मजसके बदले में उन्हें नेग मदया जाता है । दरअसल , इस ररवायत की आड़ में सविा जामतयों के श्रेष्ठता के दंभ को समाज में बनाए रखने की एक चालाकी होती है । ‘ िलाम ’ दसलत चेतना की कालजयी कहानी इिसलए भी है सक इिमें कहानीकार ने हरीि जैिे पाि को उि िाहसिक कृ यय को करते हुए सदखाया है , जो दसलत सिमिक का मूल स्िर है , जासतगत भेदभाि को ध्िस्त करते हुए पररितकन कामी चेतना को व्यक्त करना । हरीश का सलाम पे न जाने का संकल्प समूचे गाँव में हलचल पैदा करता है - –“ दोपहर होते – होते बात पूरे गाँव में फ़े ल गयी ।... ऐसा लग रहा था जैसे जोहड़ के पानी में मकसी ने कं कड़ फें क मदये हों गोल – गोल लहरें घूमकर मकनारों तक फ़े ल गई थीं ।” 10
Vol . 3 , issue 27-29 , July-September 2017 . वर्ष 3 , अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017