Jankriti International Magazine Jankriti Issue 27-29, july-spetember 2017 | Page 389

Jankriti International Magazine / जनकृ सत अंतरराष्ट्रीय पसिका ISSN : 2454-2725
राजनीमतक या संसदीय लोकतन्त्र का कोई लाभ नहीं ममला है । सरपंच के द्वारे दो रोटी और थोड़ी सी कच्ची शराब पाने के एवज़ में बोधन मदन- रात पररश्रम करता है । इस तरह वह न मसफा अपने को भूले रहता है , अमपतु अपने पररवार और समुदाय के प्रमत भी लापरवाह बना रहता है । आत्मसजगता नाम की कोई चीज उसकी मज़ंदगी में नहीं होती है । मनरुद्देश्यपूिा जीवन यापन करना मानों उसकी मनयमत है । दरअसल , स्वातंत्र्योत्तर मवकासमूलक पररवतान ने बोधन और उस जैसे तमाम लोगों को कोई मवकल्प ही नहीं मदया मजससे मक वे इस मनरुद्देश्यता के पार जा सके । बोधन का बेटा भोजराज अपने मपता तथा गाँव के तमाम दमलत मपताओं की इस मनयमत को भलीभाँमत जानता है , मजसे आलोच्य कहानी में उसके इस स्वगत कथन में लक्ष्य मकया जा सकता है - –“… वह यह भी जानता है मक वह इस तरह का अके ला बाप नहीं है , इसी पुरा में ऐसे तमाम बाप हैं जो लगभग एक ही धातु के बने हैं । वे अंधे बैलों की तरह मज़ंदगी की गाड़ी में जूते हुए हैं । कोई भी मकसी भी कीमत पर लीक तोड़कर चलना नहीं चाहता ।” 6 ( कु शवाह , सुभार्ष चन्द्र ( संपादक ), जामतदंश की कहामनयाँ , साममयक प्रकाशन , नई मदल्ली , प्र . सं . 2009 , पृ . 95 ) बोधन की सामामजक पहचान एक मनरीह मजदूर के मसवा कु छ नहीं , जो स्वातंत्र्योत्तर परर्टश्य में भी दमलतों की आमथाक दुरवस्था के बदस्तूर कायम रहने की सच्चाई की ओर संके त करती है । आलोच्य कहानी में यह स्पसे देखने को ममलता है मक आमथाक दुरवस्था में जी रहे इन लोगों की सामामजक संरचना में कोई जगह नहीं है । ग्रामीण िामासजक व्यिस्था में दसलतों को िम्मान समलना तो दूर , उन्द्हें मनुष्ट्य िमझने की िोच तक सिकसित नहीं हुई है । ग्रामीि समाज में बद्धमूल ऊं च-नीच , श्रेष्ठ-हीन जैसी अलोकतांमत्रक सोच ने सदा बोधन और उसके पररवार जैसों के साथ
अन्याय मकया है । कहना न होगा मक इस अलोकतांमत्रक व्यवहार और मानमसकता के बने रहने में समाज की दमकयानूसी मान्यताएँ प्रमुख रूप से मज़म्मेवार रही हैं , मजन्हें परमपरा , समाज और संस्कृ मत के नाम पर स्थामपत मकया गया है । आिया नहीं है मक सविा जामतयाँ इन मान्यताओं में अपना भला देखती हैं और इस कारि भी इसे सदैव बनाए रखना चाहती हैं । प्रस्तुत कहानी में भी एक ऐसी ही ररवायत का मज़क्र है , – गाँव के भीतर रहने वाली सविा जामतयों का गाँव के बाहर पूरे में रहने वाली दमलत जामत की मस्त्रयों के साथ होली खेलना । स्पसे ही यह समझा जा सकता है मक त्योहार की आड़ में यह ररवायत गैर दमलत जमतयों की अपनी श्रेष्ठता सामबत करने का एक उपक्रम है । प्रकरान्तर से यह उनके स्वयं के बड़े और ऊं चे कहलवाने के दंभ का प्रकाशन होता है । यह ररवायत गैर दमलत शमक्तयों को दमलत - मस्त्रयों के साथ बदसलूकी करने , उसकी देह पर कब्जा जमाने , जबरन उनका यौन – शोर्षि करने की खुली छू ट देती है । बोधन की पत्नी राधा भी अतीत में इस ररवायत की आड़ में यौन शोमर्षत और अपमामनत हो चुकी है । आलोच्य कहानी में यह संदमभात है मक गाँव का सरपंच उसका यौन- शोर्षि करता है । मवडम्बना यह है मक गाँव में वह अके ली ऐसी स्त्री नहीं है , उसकी जैसी कई और हैं । राधा जैसी मस्त्रयों की मुखालफत की आवाज इन त्योहारों की पारंपररकता और शोर में घुट कर रह जाती है- –“ आमखर में एक बार होली की पड़वा को सरपंच बोधन के घर होली खेलने आया । उसी मदन उसने राधा को उसके घर में घुसकर धार दबोचा । वह खूब चीखी मचल्लाई लेमकन होली के हुड़दंग में उसकी आवाज़ घुटकर रह गयी ।” 7 ( यथोपरर , पृ . 94 ) जामतगत श्रेष्ठता के दंभ का ननन उदाहरि आलोच्य कहानी के कई प्रसंग में देखा जाता है । जब बोधन सरपंच के द्वारे अपनी नगमड़या बजाने
Vol . 3 , issue 27-29 , July-September 2017 . वर्ष 3 , अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017