Jankriti International Magazine Jankriti Issue 27-29, july-spetember 2017 | Page 386

Jankriti International Magazine / जनकृ सत अंतरराष्ट्रीय पसिका ISSN : 2454-2725
िार
िमकालीन सहन्द्दी कहानी में िामासजक आसथकक लोकतन्द्ि
डॉ . धनंजय कु मार िाि
हमारी सामामजक संरचना में दमलत जन – समुदाय की मस्थमत भयावह है । आज समकालीन सामामजक- सांस्कृ मतक एवं सामहमत्यक परर्टश्य में जो दमलत मवमशा या दमलत आंदोलन या मफर दमलत जन उभार है , वह मनमित ही दमलत जनजीवन के अपने चतुमदाक पसरी प्रमतकू ल मस्थमतयों के प्रमत स्वतंत्र चेतना और आत्मसजगता है । समकालीन परर्टश्य में उभरा दमलत मवमशा मूलक सामहमत्यक स्वर जो समदयों से चले आ रहे जामतवाद से ग्रस्त समाज व्यवस्था में दमलतों की सामामजक-ऐमतहामसक-सांस्कृ मतक अमस्मता को नकारने वाले सोच-संस्कार को ध्वस्त करने की प्रेरिा मलए हुए है । लोकतन्त्र को मसफा राजनीमतक पयााय के रूप में , या के वल उस क्षेत्र में ग्रहि करने के बजाय उसे सामामजक , आमथाक लोकतन्त्र के साथ संपृक्त कर देखने की जरूरत है । ‘ बोधन की नगमड़या ’ ‘ सलाम ’ ‘ नो बार ’ ‘ बहुरूमपया ’ आमद कहामनयाँ सामामजक और आमथाक लोकतन्त्र को आहत करने वाले , उसे ध्वस्त करने वाले तत्त्वों को मचमन्हत करती है तथा इसके पर जाने की समदच्छा अंमकत करती हैं । इसी समदच्छा के साथ लोकतन्त्र के मूल - ‘ जामत नहीं , मनुष्ट्यता ही आमखरी सामामजक पहचान ’ लक्ष्य को हामसल मकया जा सकता है ।
िोध सिस्तार “ दुःखों से हैं जो दनध मदनध होंगे उनके बाि ।
धनु उठाएँ – भर , समय मसखाएगा शर संधान ।।”( मनराला )
मनुष्ट्य और समाज का संबंध अन्योन्यामश्रत है । मनुष्ट्य की सामामजक चेतना ही समाज में उसके अमस्तत्व का मनधाारि करती है । उसकी पहचान को गढ़ती है । पर वह समाज , जहाँ मकसी मनुष्ट्य या समुदाय की अमस्मता ‘ जामतवाद ’ की घृिामूलक- कसौटी पर कसा गया हो , जहाँ जामतवाद के घृिामूलक सोच – संस्कार द्वारा व्यमक्त की स्वतन्त्रता , समानता का हनन हुआ हो , मनुष्ट्य – मनुष्ट्य के बीच व्यवधान उत्पन्न मकया गया हो , जहाँ समाज के एक समुदाय मवशेर्ष को प्रमतकू ल पररमस्थमतयों के मध्य रहने को बाध्य मकया गया हो , वहाँ सामामजक संकट का उत्पन्न होना लाज़मी है । कहना न होगा मक यह सामामजक संकट मानवीय सभयता के समक्ष एक बड़ा प्रश्न है और एक मवचारशील मुद्दा भी । दुःख शब्द और उसकी व्यंजना से हम सभी पररमचत हैं । कहना न होगा मक दुःख मकसी भी व्यमक्त समाज या समुदाय की प्रमतकू ल पररमस्थमतयों का संके तक होता है । भारतीय सामामजक पररप्रेक्ष्य में यह सहज ही कहा जा सकता है मक दमलत जन -समुदाय प्रमतकू ल पररमस्थमतयों के चतुमदाक रहने को समदयों से अमभशप्त है । हमारी िामासजक िंरचना में दसलत जन – िमुदाय की सस्थसत भयािह है । इस भयावह मस्थमत के प्रमत उनकी आत्मसजगता ही कहीं-न-कहीं सामामजक , सांस्कृ मतक एवं सामहमत्यक परर्टश्य में दमलत जन उभार , दमलत आंदोलन या दमलत मवमशा का रूप ले रहा है । उनकी यह आत्मसजगता आवेग- आक्रोशपूिा भी है , जो स्वाभामवक है । क्योंमक , यह दुःखों से त्रस्त होने पर ही उपजी है । इसकी स्वाभामवक अमभव्यमक्त ही दमलत स्वर और मवमशा को एक अलहदा रूप प्रदान करती है । िच्चाई है सक िमकालीन सहन्द्दी दसलत सिमिक अपनी
Vol . 3 , issue 27-29 , July-September 2017 . वर्ष 3 , अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017