Jankriti International Magazine Jankriti Issue 27-29, july-spetember 2017 | Page 382

Jankriti International Magazine / जनकृ सत अंतरराष्ट्रीय पसिका ISSN : 2454-2725
भौगोमलक सीमा नहीं होती । मजस मवचार और सामहत्य से शोर्षक-शासक वगा का महत पोमर्षत होता है , वह उसे प्रचाररत प्रसाररत करता है , चाहे वह मकसी भी देश का हो । उदाहरि के मलयो तालस्ताय और कनफ्यूमशस के मवचार और सामहत्य से हमारे पुस्तकालय भरे पड़े हैं , और उन्हें पाठ्य पुस्तकों में भी पढ़ाया जाता है , मफर अगर हम लेमनन और माओत्सेतु ंग का सामहत्य पढ़े और उनके मवचारों को शोमर्षत उत्पीमड़त और मनष्ट्पेमशत जनता में प्रचाररत- प्रसाररत करें तो हो-हल्ला क्यों मचता है ? उन पर मवदेशी होने का लेमवल क्यों लगाया जाता है ? मसफा इसमलये न मक उससे शोर्षक-शासक वगा के महतों पर आँच आती है । जन साधारि की चेतना मवकमसत होती है । 6
अपनी समीक्षात्मक कृ मत मतलक से आज तक में रहबर मलखते हैं- ‘‘ हमारे देश की यह मवडम्बनापूिा मानमसकता बन गई है मक जो भी व्यमक्त रुमढ़यों का मवरोध करता है , उन्हें तोड़ने का प्रयास करता है , उसका यथा शमक्त डटकर मवरोध मकया जाता है । महावीर , बुद्ध , कबीर , नानक दयानन्द , राजाराममोहन राय , सभी के साथ ऐसा ही मवरोध सामने आया ।
लेमकन वे मजन्हें मवरोध स्वीकार ही नहीं , अपने पथ पर अमडग हो अपने लक्ष्य की ओर बढ़ते रहते हैं । हर वाद में कु छ रुमढ़या और रुमढ़वामद बन जाते हैं । और वे रुमढ़ जनमानस में रच बस जाती हैं । चाहे उसका पररिाम ऋिात्मक ही क्यों न हो । ये मजस मान्यता को अपनाते हैं उस पर भली प्रकार सोच मवचार करके ही अपनाते । इनकी इस प्रवृमत्त को हम अन्तरााष्ट्रीयता के सम्बन्ध में इन मवचारों को देखकर लगा सकते हैं । इनका कहना है मक ‘ अन्तरााष्ट्रीयता में राष्ट्रीयता भी शाममल है , उसमें से राष्ट्रीयता मनकाल दीमजए तो शेर्ष क्या रह जायेगा । के वल ‘ अन्तर ’’ 7 ।
पैनापन पाया गया मक मजसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती ।
इसी सन्दभा में एक बात यह भी ध्यान देने की है , मक राष्ट्रीय संग्राम में तथाकमथत सनातनी मजन्हें रुमढ़वादी और न जाने क्या-क्या कहा गया था वही गमा दलीय थे , उन्होंने ही माक्सा को भली प्रकार समझ कर आत्मसात् मकया था । देश की स्वतन्त्रता के मलये फांसी पर झूलने वाले मजन क्रामन्तकाररयों के पास माक्सा सामहत्य ममलता था । जो रूस की क्रामन्त से प्रेरिा लेते थे उन्हीं के पास मतलक की गीता-रहस्य और मववेकानन्द सामहत्य ममलता था । जबमक उन मदनों के प्रगमतशील मवचारों वाले अंग्रेज-भक्त गांधी के चरखावाद में अपनी शमक्त का अपव्यय कर रहे थे । कौन सी शमक्तयाँ इन रुमढ़वामदयों (?) को माक्सा की ओर अग्रसर होने को प्रेररत कर रही थीं , जबमक गांधी उनके अमधक करीब थे । यह शोध का मवर्षय हो सकता है । मकन्तु इस मान्यता के बारे में दो राय नहीं हो सकतीं मक इन उग्रवादी कहे जाने वालों का ्टमसेकोि सही अथा में प्रगमतशील था जो अपने राष्ट्रीय दामयत्व को भलीभाँमत समझते थे । ‘ रहबर ’ ने अपनी कृ मतयों में एक-एक कर इस तथ्य की ओर ध्यानाकमर्षात मकया है और माक्सा एवं माओ को राष्ट्रीय पररप्रेक्ष्य में देखते हुए जन साधारि तक पहुँचाया है ।’’ 8
‘ प्रगमतशीलता ’ वस्तुतः एक मवशेर्ष अथा में रूढ़ हो गई हैं । मजसका सीधा अथा माक्सा से सम्बद्ध मकया जाता है । जो मक इस युग के मलये कोई नवीन नहीं बमल्क पुरातन दशान है । शायद इसीमलये कु छ लोग इसे जनवाद के नाम से फै शन में ला रहे हैं ।
‘ प्रगमत ’ के इस रुढ़ अथा में ही स्वनामधन्य समालोचक तुलसीदास के महत्व को नकारते हैं जबमक अपने समय में तुलसी भी प्रगमतशील थे । मववेकानन्द और मतलक ने भी प्रगमतवादी ्टमसेकोि का प्रचार-प्रसार मकया । मववेकानन्द की ्टमसे में ‘ मनुष्ट्य
रहबर जी की व्यापक ्टमसे कदम-कदम पर मवमवध आयामों में ्टमसेगोचर होती है । इनकी ्टमसे में इतना
सारे प्रामियों से श्रेष्ठ है , सारे देवताओंसे श्रेष्ठ हैं , उससे Vol . 3 , issue 27-29 , July-September 2017 . वर्ष 3 , अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017