Jankriti International Magazine Jankriti Issue 27-29, july-spetember 2017 | Page 38

Jankriti International Magazine / जनकृ सत अंतरराष्ट्रीय पसिका ISSN : 2454-2725
के वल उत्पीमड़तों का मशक्षाशास्त्र ही नही रहता बमल्क मनुष्ट्य की मुमक्त का मशक्षाशास्त्र बन जाता है . मनुष्ट्य की मुमक्त के वल पेटभर खाना खा लेने से नही हो सकती उसकी मुमक्त का सपना तो सही रूप में चेतना से जुड़ता है जहाँ से वह सोचना और चीजों को समझना शुरू करता है . अतः मजसे हम उत्पीमड़तों का मशक्षाशास्त्र कह रहे हैं उसे सरल शब्दों में यह कहें तो गलत न होगा की वह दरअसल समाज को मवचारानुशंगी बनाने की प्रमकया है . मजसमें आलोचनात्मक मचंतन और रूमढ़यों से मुमक्त का सपना हो .
पुस्तक का दूसरा अध्याय सीधे स्कू ली मशक्षा व्यवस्था को कें द्र में रखता है . मजसमें समाज और स्कू ल का सम्बन्ध , समाज मनमााि में मवद्यालय की भूममका , मशक्षक-छात्र सम्बन्ध आमद प्रश्नों को साथ में लेकर परम्परागत मशक्षि पद्दमत की आलोचना एवं नवोन्मेर्ष की मदशा के कु छ सूत्र सुझाये गये है . इस अध्याय में फ्रे रे परम्परागत मशक्षि प्रिाली को विानआत्मक पद्धमत कहते हैं . मजसमें मशक्षक को ज्ञानी माना जाता है और छात्र को कोरा कागज . इस पद्दमत में रटन्त प्रिाली मवकमसत होती है जो मवद्यामथायों को खाली बतान ( पात्र ) बना देती है और मशक्षक को भरा हुआ ज्ञान का पात्र , और मफर इसी के साथ मवकमसत होती है मसखाने की अवैज्ञामनक मवमधयाँ . इसी के तहत मशक्षा बैंक में पैसा जमा करने की भांमत छात्रों में ज्ञानराशी जमा करने का काम बन जाती है , मजसमें मशक्षक जमाकत ा होता है और छत्र जमादार ( मडपोमजटरी ) होते हैं . इस मशक्षा व्यवस्था के कु छ लक्षिों को फ्रे रे ने सूत्रबद्ध मकया है —
� शिक्षक पढ़ािा है और छात्र पढाए जािे हैं .
� शिक्षक सोचिा है और छात्रों के बारे में सोचा जािा है .
� शिक्षक बोलिा है और छात्र सुनिे हैं – चुपचाप
� शिक्षक अनुिासन लार्गू करिा है और छात्र अनुिाशसि होिे हैं .
� शिक्षक अपनी मजी का माशलक है , वह अपनी मजी चलािा है और छात्रों को उसकी मजी के मुिाशबक चलना पड़िा है .
� शिक्षक कमम करिा है और छात्र उसके कमम के जररये सशिय होने के भ्रम में रहिे हैं .
� शिक्षक पाठ्यिम बनिा है और छात्रों को ( शजनसे पाठ्यिम बनािे समय को सलाह नही ली जािी ) व्ही पढना पड़िा है .
� शिक्षक अपने पेिेवर अशिकार को ज्ञान का अशिकार समझिा है ( स्वयं को अपने शवषय का अशिकारी शवद्वान् समझिा है ) और उस अशिकार को छात्रों की स्विंत्र के शवरुद्ध इस्िेमाल करिा है .
� शिक्षक अशिर्गम की प्रशिया का करिा होिा है और छात्र महज अशिर्गम की वस्िुएं .
अपनी पूरी पुस्तक में फ्रे रे इस तरह की मशक्षा व्यवस्था को ख़ाररज करते हैं और इसके मवकल्प के रूप में एक नई व्यिस्था की िकालत करते हैं सजिे उन्द्होंने ‘ िमस्या-उिाऊ ’ सिक्षा की पद्दसत कहा है . जहाँ बैंमकं ग मशक्षा सृजनात्मक-शमक्त को कु ं मठत और सौन्दया चेतना को अवरुद्द करती है , वहीं समस्या- उठाऊ मशक्षा में मनरंतर यथाथा का अनावरि होता रहता है . जहाँ बैंमकं ग मशकः चेतना को डूब की दशा में बनाए रखने की कोमशश करती है , वहां समस्या-उठाऊ
� शिक्षक सब कु छ जानिा है और छात्र कु छ भी नहीं जानिे .
मशक्षा चेतना को उभरने तथा यथाथा में Vol . 3 , issue 27-29 , July-September 2017 . वर्ष 3 , अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017