Jankriti International Magazine Jankriti Issue 27-29, july-spetember 2017 | Page 376

Jankriti International Magazine / जनकृ सत अंतरराष्ट्रीय पसिका ISSN : 2454-2725
नागमती अपने अमस्मता की खोज भी जाने- अनजाने करती है -
पसहले आपु खोइ कै करै तुम्हारी खोज ।। 13
यामन जब तक अपनी अमस्मता का लोप नहीं करूं गी मैं तुम्हें प्राप्त नही करती । जो स्त्री अनुगाममनी नहीं है , मजसने अपना व्यमक्तत्व मवलीन नहीं मकया उसे अपने पमत की अनुकम्पा भी प्राप्त नहीं हो सकती । इस प्रकार का ‘ काम्प्लेक्स ’ मध्ययुग की मकसी रचना में नहीं है । यहॉ नागमती अपने बहुआयामी चररत्र के द्वारा समाज का भी चररत्र प्रस्तुत करती है ।
नागमती नारी की अमस्मता , उसकी पराजय , पुरुर्ष के भगवनपरक तथा वास्तमवक रुप को उजागर करने के साथ मध्ययुग की कृ पाभाव वाली संस्कृ मत के मवरुद्ध भी आवाज उठाती है ।
नागमती के अनेक प्रयासो के बावजूद रत्नसेन ‘ जोगी ’ बनकर पदमावती की खोज में मनकल पड़ा । तब नागमती के चररत्र में जो पररवतान आता है उसे मुमक्तबोध की शब्दावली में कहें तो उसका ‘ व्यमक्तत्वान्तरि ’ हो जाता है । वह रत्नसेन से साथ जाने का आग्रह करती है -
अब को हमसहं कररसह भोसगनी । हमूहँ िाथ होइब जोसगनी
कै हम लािहु अपने िाथा । कै अब मारर चलहु िैं हाथाँ ।
� * *
जै लसह सजउ िंग छाड़ न काया । कररहौं िेब पखररहौं पाया । 14
भलेसहं पदुसमनी रूप अनूपा । हमतें कोई न आगरर रूप ।
भिै भले सह पुरुषन्द्ह कै डीिी । सजन्द्ह जाना सतन्द्ह दीन्द्ही पीिा ।। 15
और रत्नसेन द्वारा ‘‘ तुम्ह मतररआ ममत हीन तुम्हारी ’’ कहने पर भी उसे दुःख नहीं होता बमल्क पुनः पुनः याचना करती है ।
‘‘ ििसत न होसि तू बैररसन , मोर कं त जेसह हाथ । आसन समलाि एक बेर , तोर पाय मोर हाथ ।।’’ 16
इतना मगड़मगड़ाने पर भी रतनसेन नहीं रुका और तब नागमती अपने पमत की मवयोगदयशा में ‘‘ हृदय के अमतव्यापक फलक ’’ की अवस्था का मवस्तार करती है । मजसे आचाया मद्ववेदी ने ‘ पमवत्र पुण्यदान ’ कहा है -
‘‘ नागमती की सिरहािस्था िह पसिि पुण्यदान है सजिमें िभी जड़-चेतन अपने िगे-िगे िे सदखाई देते हैं ।’’ 17
एक वर्षा की लम्बी प्रतीक्षा में नागमती उस अमतदीघा समयान्तराल का अनुभव करती है जो उसे प्रकृ मत के जड़-चेतन सभी रूपों से जोड़ देता है । अब वह स्वयं को िह्माण्ड की सु ंदर नारी नहीं समझना चाहती अब प्रश्न पमतप्रेम का है जो उसके प्रािों को ले गया -
‘‘ िुिा काल होइ लै गा पीउ । पीउ नसह लेत लेत बरू जीऊ ।।’’ 18
अिाढ़ , िािन , भादों , कु आर , कासतक , अगहन , पूि , माघ , र्ागुन चैत , बैिाख , जेि , जेि- अिाढ़ी ... इन बारहमहीनों में नागमती के सिरह दुःख का व्यापक प्रभाि प्रकृ सत के माध्यम िे पररलसक्षत होता है जो नागमती के गहरे प्रेम के
इतनी मवनम्र याचना पर भी रत्नसेन के न रूकने पर
वह अपने रूप का लोभ पुनः स्मररत कराती है -
िाथ जायिी के काव्योयकषक को भी िूसचत करते
Vol . 3 , issue 27-29 , July-September 2017 .
वर्ष 3 , अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017