Jankriti International Magazine Jankriti Issue 27-29, july-spetember 2017 | Page 375

Jankriti International Magazine / जनकृ सत अंतरराष्ट्रीय पसिका ISSN : 2454-2725
जब रत्नसेन के आखेट से लौटकर ‘ सुए ’ की खोज करता है तो नागमती कहती है मक ‘ वह सुआ शठ है , उसे मसर चढ़ाना अच्छा नहीं , क्योंमक जो आभरि कान को कसे दे , उसका प्रयोजन ही क्या । 6 यह सुनते ही रत्नसेन उसे प्रािदण्ड का आदेश देते हुए कहता है -
‘‘ कै परान घि आनहु मती । कै चसल होहु िुआ िंग िती ।
� * * जासन जानहु कै औगुन मंसदर होइ िुख िाज । आएिु मेसि कं ि कर काकर भा न अकाजा ।। 7
और तब नागमती का गवा चूर-चूर हो जाता है वह सोचती थी मक मैं पटरानी हूँ , मेरे पास अमधकार भी है , मेरा पमत मुझसे प्रेम करता है , मकन्तु अब उसे सब कु छ मनरथाक लगता है -
अैिें गरब न भूलै कोई । जेसह डर बहुत सपआरी िोई ।। 8
और वह अपनी धाय से कहती है - ‘‘ मैंने अब तक अपने पसत की जो िेिा की , िह िब व्यथक गया , िेंमल के र्ल की आिा में उिका िेिन करने िाले िुए को भुआ समला ।’’ 9 इस गहरे मवर्षाद के बाद वह कहती है - ‘‘ मैं सपय प्रीसत भरोिे गरब कीन्द्ह सजअ माँह । तेसह ररसि हौं परहेसलउँ सनगड़ रोि सकउन नाहँ । 10
यहाँ रोर्ष की बेड़ी में गहरी अमभव्यंजना है एक स्त्री की । जो अपने समस्त सुखों को पमत के अधीन समझती है , मकं तु वह सब के वल मात्र मदखावा प्रतीत होता है ।
धाय मक दूरदमर्षाता सुआ को बचा लेती है सुआ के कारि ही नागमती को रत्नसेन के वास्तमवक स्वरूप का ज्ञान होता है , वह कहती है -
िेिा करै जो बरहौ मािा । एतसनक औगुन करह सिनािा ।
जौ तुम्ह देइ नाि कै गीिा । छाँड़हु नसहं सबनु मारे जीिाँ ।। 11
वह कहती है मात्र इतने से अवगुि से तुम मुझे मार दोगे भले ही मैंने बारह मास तुम्हारी सेवा की । और यमद कोई गदान झुकाए तो तुम उसे मार डालोगे ? यहाँ नागमती पूरे मध्ययुगीन मानमसक ढाँचे पर प्रहार करती है जो कृ पाभाव वाली है , भगवान , राजा , पमत सभी उसके ‘ रक्षक ’ सूचक शब्द है ।
नागमती पमत के परमेश्वर रूप को भी प्रष्ट्नांमकत करते हुए कहती है -
समलतासह मह जनु अहहु सननारे । तुम्ह िौं अहै अदेि सपयारे
मैं जाना तुम्ह मोंही माहाँ । देखौं तासक तौ हुह िब पाहाँ ।
का रानी का चेरी कोई । जा कहँ मया करहु भसल िोइ ।। 12
इन पंमक्तयों में नागमती ने गहरी अमभव्यंजना की है मक हे परमेश्वर मैं जानती थी तुम मेरे भीतर हो , मकं तु ताक कर देखती हूँ तो तुम सवात्र हो , चूैमक पमत-पत्नी की मस्थमत एक-दूसरे के भीतर है और तुम मजतने मेरी और हो उतना ही अन्यत्र भी , तुम मजतना मेरी ओर हो उतना पदमावती की ओर भी । अतः तुम महान हो । यहाँ जायसी ने एक स्त्री के भाव से जुड़े अनेक मभनमभनाते अथों की व्यंजना की ।
Vol . 3 , issue 27-29 , July-September 2017 . वर्ष 3 , अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017