Jankriti International Magazine Jankriti Issue 27-29, july-spetember 2017 | Page 371

Jankriti International Magazine / जनकृ सत अंतरराष्ट्रीय पसिका ISSN : 2454-2725
सममपात करते हुए कहते हैं- ‘‘ मैंने उनके मलए मलखा है मजन्हें जानता / हूँ जीवन के मलए लगाकर अपनी बाजी / जूझ रहे हैं जो फांके टुकड़ों पर राजी / कभी नहीं हो सकते हैं ।’’ 13
कमव मत्रलोचन की कमवता समाज के संघर्षाशील व्यमक्त की कमवता है इसका तात्पया यह है मक कमव ने सदैव ही मक्रयारत व्यमक्त के पररश्रम के महत्व को जाना समझा है । उसे अपना आदशा माना है मकन्तु वह पररश्रम करने वाला व्यमक्त भी आदमी ही तो है । उसे भी थकान , मनराशा , कु ं ठा आमद से सामना करना पड़ता है ऐसी ही मवर्षम अवस्था में मत्रलोचन की कमवता उसे ऊजाा प्रदान करती है उसकी मूछाा को हरती है- “ अभी तुम्हारी शमक्त शेर्ष है / अभी तुम्हारी सांस शेर्ष है मत अलसाओ मतचुप बैठो / तुम्हें पुकार रहा है कोई ।” 14
मत्रलोचन की मानव से यह अपील देखने योनय है- “ नर रे / तम में द्युमत में आया । बस कर / बीता , जीता सुमध साहस कर / स्वर पर मनभार , स्वर-जीव अपर जग देख रहा तुझको आया , भर मुखर तृर्षा की लहर अधर रे ।” 15
मत्रलोचन समाज के अलगाव को सहन नहीं कर पाते हैं उन्हें वगामवहीन समाज की अमभलार्षा है । वे यह बद ास्त नहीं कर पाते मक मेहनत से मरे कोई और मेहनतकशों की कमाई पर गुलछरे उड़ाए कोई । वस्तुतः मत्रलोचन ऐसे समाज की संरचना के महमायती हैं मजसमें सभी पररश्रमशील हों और उनके पररश्रम के पररिाम पर उनका अमधकार हो । वे यह कतई बद ाश्त नहीं कर सकते हैं मक मेहनतकशों के
है-मानवीय अमस्मता की प्रमतष्ठा । वे सच्चे अथों में जनवादी सामहत्यकार हैं । वे भलीभाँमत जानते हैं मक मानवीय सभ्यता इन्हीं के खुरदरे हाथों में नवीन रूप प्राप्त करती है- ‘‘ जब तुम मकसी बड़े या छोटे कारखाने में / कभी काम करते हो मकसी भी पद पर / तब मैं तुम्हारे इस काम का महत्व खूब जानता हूँ । और यह भी जानता हूँ – “ मानव की सभ्यता / तुम्हारे ही खुरदरे हाथों में नया रूप पाती है ।” 16
मत्रलोचन की काव्य संवेदना का के न्द्र रहा है- ग्रामीि ; मकन्तु मत्रलोचन का समाज महज ग्रामीि समाज ही नहीं है उनकी सामामजकता के वृहत्तर दायरे में जहाँ एक ओर लोकजीवन की नाना मचत्रावमलयाँ अवलोकनीय हैं वहीं दूसरी ओर उनका काव्य अपनी व्यापकता में समाज के मशसे वगा की अनुभूमतयों से भी सम्पृक्त है । लोक और मशसे का यह अद्वैत उनकी सामामजक चेतना को वृहत्तर आयाम प्रदान करता है । मानव समाज के प्रमत एक गहरी आसमक्त उनके काव्य में सवात्र अवलोकनीय है । वे मात्र मानव जीवन के प्रमत आकमर्षात नहीं हैं बमल्क प्रकृ मत के एक एक रेशे से गहरा रागात्मक लगाव उनकी काव्य संवेदना का अमनवाया अंग रहा है । उनकी कमवता का लक्ष्य समाज की वेदना का शमन कर उनके जीवन में हर्षा , ऊज ा और शमक्त का संचार करता है वस्तुतः सामहत्य का सृजन ही वेदना के साक्षात्कार से ही उद्भूत हुआ करता है क्योंमक सामहत्यकार का लक्ष्य ही सामामजक वेदना का शमन हुआ करता है मत्रलोचन का सामहत्य भी उनकी इसी सामामजक वेदना के साक्षात्कार से ही मनममात है । वे मलखते हैं- “ जब पीड़ा बढ़ जाती है / बेमहसाब / तब जाने अनजाने लोगों में / जाता हूँ / उनका हो जाता हूँ / हँसता हँसाता हूँ ।” 17
हक को मार कर पू
ँजीपमत अपनी पू
ँजी बढ़ाते जाएं
बमल्क उनके सामहत्य का लक्ष्य ही है मक मेहनतकशों
को उनकी मेहनत का हक मदया जाय वह भी पूरे
सम्मान के साथ क्योंमक उनका सामहमत्यक लक्ष्य ही
मत्रलोचन मात्र समाज की बेमहसाब पीड़ा का
ही मचत्रि नहीं करते बमल्क वे पीड़ा को उत्पन्न करने
वाले सारे कारकों की जाँच पड़ताल करते हुए प्रतीत
Vol . 3 , issue 27-29 , July-September 2017 .
वर्ष 3 , अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017