Jankriti International Magazine Jankriti Issue 27-29, july-spetember 2017 | Page 370

Jankriti International Magazine / जनकृ सत अंतरराष्ट्रीय पसिका ISSN : 2454-2725
सृजनशील हो उठती है । मत्रलोचन ने के वल जीवन सत्यों का ही चयन नहीं मकया है , बमल्क जीवन की संपूिाता को ग्रहि मकया है । जीवन सत्य का उजागर उसमें रम कर ही मकया जा सकता है । वे इसमें पूिारूपेि रमे हुए हैं । जीवन को नैरंतया में मनत नएपन का आभास कमव के कमा रूप में होता रहता है । इसी से कमवता में जीवंतता आती है । यह जीवन्तता मत्रलोचन की कमवताओं में सवात्र ममलती है ।” 5
वस्तुतः कमव मत्रलोचन जीवन के मवमवध पक्षों के समथा एवं कु शल मचत्रकार हैं जीवन के तमाम सुख दुख से सजी उनकी कमवताएं पाठकों से अपनापन स्वतः स्थामपत कर लेती हैं-मैं जीवन का मचत्रकार हूँ / मचत्र बनाता घूम रहा हूँ । 6
कमव मत्रलोचन की सामामजक संचेतना की पररमध असीम है । वे मकसी एक को अपना नहीं मानते वरन् सब उनके अपने हैं इसी तरह वे मकसी व्यमक्त मवशेर्ष के न होकर के सभी व्यमक्त के मलए मवशेर्ष हैं । उनकी प्रेम सुधा से सभी तृप्त होते हैं वह चाहे कहीं रहे या मफर वह कोई भी हो- “ मैं इन आवतों में बंधा हुआ आज कहाँ अपना हूँ / अपने लोगों का हूँ / अपनी दुमनया का हूँ / आज मैं तुम्हारा हूँ / मबलकु ल तुम्हारा हूँ , / के वल तुम्हारा हूँ ,/ कहीं रहो कोई हो ।’’ 7
मत्रलोचन माक्र्सवादी चेतना सम्पन्न ऐसे सामहत्यकार हैं जो समाज की मवर्षमता को समता में पररमित करने के मलए सदैव ही प्रयत्नशील रहे । समाज में उठने वाली हर ध्वमनयों को उन्होंने बड़ी ही कु शलता से ग्रहि मकया है- ‘’ ध्वमनग्राहक हूँ मैं / समाज में उठने वाली / ध्वमनयाँ पकड़ मलया करता हूँ ।’’ 8
समाज में आपसी सामंजस्य मृदुतापूिा रहता है कमव के शब्दों में ही- “ प्रेम व्यमक्त व्यमक्त से / समाज को पकड़ता है / जैसे फू ल मखलता है उसका पराग मकसी और जगह पड़ता है । फू लों की दुमनया बन जाती है ।” 9
समाज के सभी सदस्यों सभी वगों से सम्बन्ध बनाये रखने की अमभलाशा उनकी सबसे बड़ी ख्वामहश है मजसके अभाव में वे अपने को अके ला महसूस करते हैं और अके लेपन के इस अवसाद को वे सहन नहीं कर पाते हैं सुख हो अथवा दुख सभी में वे समाज के साथ सुख दुख बाँटना पसंद करते हैं और वे यह बात बड़ी सहजता से स्वीकार करते हैं- “ आज मैं अके ला हूँ / अके ले रहा नहीं जाता /... सुख दुख एक भी / अके ले सहा नहीं जाता ।” 10
कमव मत्रलोचन शास्त्री की सामामजक चेतना का फलक अत्यंत व्यापक है । वैयमक्तक दुःख को वे नजर अंदाज करते हैं मकन्तु सामामजक दुःख को वे स्वीकार नहीं कर पाते वरन् उसे दूर करने के मलए यथाशमक्त संलनन हो जाते हैं । उनसे मजतना हो सकता उतना करने का वे प्रयास करते हैं- “ औरों का दुख ददा नहीं वह सह पाता है / यथा शमक्त मजतना बनता है कर जाता है ।” 11
मत्रलोचन की कमवताओं का वण्र्य मवर्षय ही समाज के अभावमय लोग हैं जो अभाव से हार मान कर हाथ पर हाथ रख कर बैठते नहीं हैं अमपतु अपनी उन्नमत के मलए प्रयत्नर्षील हैं- “ भाव उन्हीं का सबका है जो थे अभावमय / पर अभाव से दबे नहीं जागे स्वभावमय ।” 12
वे कमाशील व्यमक्त का बड़ा ही सम्मान करते हैं । इसकी वजह है मक मक्रयाशील व्यमक्त
कमव मत्रलोचन अपने सभी काव्य संग्रहों में
आत्मसम्मानी होता है । वह बैठ कर खाना नहीं पसंद
समाज में प्रेम एवं सद्भाव को अक्षुण्ि बनाए रखने की
करता है उसे मभक्षावृमत्त कतई पसंद नहीं होती है ।
बात करते हैं । वस्तुतः प्रेम ही वह तत्व है मजससे
मक्रयाशील या कमारत व्यमक्तयों को वे अपना काव्य
Vol . 3 , issue 27-29 , July-September 2017 .
वर्ष 3 , अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017