Jankriti International Magazine Jankriti Issue 27-29, july-spetember 2017 | Page 37

Jankriti International Magazine / जनकृ सत अंतरराष्ट्रीय पसिका ISSN : 2454-2725
1 . फ्रे रे के शैमक्षक दशान और उनके द्वारा आजमाई गई मशक्षि मवमधयों में मनमहत पूवा धारिाएं हमारे समय की तीन बड़ी मचंतन धाराओं से जुड़ी हुई हैं मजनका फलक मशक्षि से कहीं अमधक व्यापक है . ये धाराएं हैं माक्सावाद , मनोमवश्लेर्षिवाद और अमस्तत्ववाद . इन तीनों से मवचार-मबंदु लेकर और अपनी मानववादी नज़र और ठोस अनुभवों से उपजी समझ को जोड़कर फ्रे रे ने आज की दुमनया के संकट और उसके सन्दभा में मशक्षा की भूममका को मचमत्रत मकया है .
2 . फ्रे रे का मशक्षिशास्त्र हमें यह बताता है मक समस्या को ‘ गरीबी ’ कहना ही एक गलत प्रस्थान मबंदु है . गरीबी उत्पीड़न का वह सुमबधाजनक और भ्रामक नाम है मजसे लेकर संपन्न मनुष्ट्य अपनी भूममका से मानमसक तौर पर बरी हो रहता है . उत्पीमड़त को गरीब बताकर वह अपनी मस्थमत और हैमसयत को वैध ठहराने में समथा होता है .
3 . अच्छी मशक्षा मकसी सामूमहक ( वह भी संघर्षाशील ) कायाक्रम के प्रसंग में ही पायी या दी जा सकती है , एकांत में बैठकर नहीं . साक्षरता के संदभा में फ्रे रे के मशक्षाशास्त्र का एक तकनीकी पक्ष भी है , लेमकन वह तकनीकी पक्ष सामामजक आंदोलन वाले पक्ष की तुलना में काफी गौि है .
है . प्रकरिों या पाठों का मवभाजन मवचार और संवाद के एक मनमित क्रम में है जो पाठक को उन दाशामनक प्रश्नों और मजज्ञासाओं के साथ स्कू ल के व्यवहाररक पहलुओंसे भी पररमचत कराता है . पुस्तक में मदए गये सन्दभा चू ंमक भारतीय सन्दभों से अलग है इसमलए सामान्य पाठक को पुस्तक के साथ गुजरते हुए भामर्षक और दाशामनक शब्दावमलयों के मलहाज से थोडा कमठनाई हो सकती है पर अनुवादक ने पुस्तक के आरम्भ में कु छ सामान्य बातों की ओर इशारा करके और अंत में अंग्रेजी शब्द सूची देकर इस समस्या को दूर करने का यथा संभव प्रयास मकया है .
पुस्तक का पहला अध्याय ‘ उत्पीमड़तों के मशक्षाशास्त्र ’( पेडोगागी ऑफ़ द आप्रेस्ड ) के औमचत्य और मुमक्त की पारस्पररक प्रमक्रया को कें द्र में रखकर मलखा गया गया है . पुस्तक का लेखक यह मानता ही मक मुमक्त एक प्रसव है और यह पीड़ादायक है . इससे जो मनुष्ट्य पैदा होता है , एक नया मनुष्ट्य होता है , मजसका जीमवत रहना तभी संभव है , जब उत्पीड़क- उत्पीमडत के अंतमवारोध के स्थान पर सभी मनुष्ट्यों का मानुर्षीकरि हो जाए . मनुष्ट्य के अन्दर स्वयं के प्रमत यह चेतना मवकमसत हो जाये की वह समझ सके की दुमनया में जो कु छ भी हो रहा है वह मानव मनममात और पररवतान शील है ‘ उत्पीमड़तों के मशक्षाशास्त्र ’( पेडोगागी ऑफ़ द आप्रेस्ड ) की शुरुवात और औमचत्य का बुमनयादी फलसफा दरअसल यही है . मशक्षा का काया मानुर्षीकरि की प्रमक्रया को तेज करना , मवकमसत करना और फै लाना है . मशक्षा को मुमक्तदायी होना चामहए उन तमाम रुमढयों से जो मानवता मवरोधी और इमतहास मवरोधी है . बकौल फ्रे रे –“ जनता का अपने आचरण के जररये यथाथष में आलोचनात्मक हस्तक्षेप करना जरूरी है . यहीं पर हैं उत्पीसड़तों के सशक्षाशास्त्र की जड़ें ; उि सशक्षाशास्त्र की जड़ें , जो अपनी मुसि के िंघर्ष में
1980 में मलखी गयी इस पुस्तक पर 1996 में कृ ष्ट्ि कु मार द्वारा मकया गया यह मूल्यांकन कई मायनों में महत्वपूिा है – मवशेर्षतौर पर जब हम भारतीय समाज और स्कू ली मशक्षा व्यवस्था के साथ काम करते हुए उसके अध्ययन और मवश्लेर्षि करने के काया में भी लगे हों . कथाकार और समीक्षक रमेश उपाध्याय द्वारा अनुमदत यह पुस्तक कु ल चार प्रकरिों में मवभामजत िंलग्न मनुष्ट्यों का सशक्षाशास्त्र है .” इस रूप में यह Vol . 3 , issue 27-29 , July-September 2017 . वर्ष 3 , अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017