Jankriti International Magazine Jankriti Issue 27-29, july-spetember 2017 | Page 369

Jankriti International Magazine / जनकृ सत अंतरराष्ट्रीय पसिका ISSN : 2454-2725
सिलोचन िास्त्री के िासहयय में मानिीयता की तलाि
- डॉ . िुभाष चन्द्द्र पाण्डेय
मत्रलोचन शास्त्री का समूचा सामहत्य ही मानवीय संवेदना से आद्यन्त आपूररत है । उनकी संवेदना के दायरे में मानव मात्र ही नहीं अमपतु इस सृमसे की समस्त जड़चेतन सत्ता समाई है । इस सृमसे के जीवजन्तु वनस्पमतयाँ आमद सभी कमव के सहभागी हैं । स्वयं कमव के शब्दों में- “ इस पृमथवी की रक्षा मानव का अपना कताव्य है / इसकी वनस्पमतयां मचमड़या और जीव जन्तु / उसके सहभागी हैं ।” 1
मध्य मत्रलोचन की मस्थमत अन्य कमवयों से थोड़ा हट कर है जहाँ लोग समाज के दीन-हीन व्यमक्त से अपना के वल रचनात्मक सम्बंध बनाए रखना पसंद करते हैं वहीं मत्रलोचन समाज के अमन्तम उपेमक्षत सदस्य के साथ भी अपना आत्मीय संम्बध रखते हैं और यही मत्रलोचन की कमवता है- ‘‘ मैं तुम से , तुम्हीं से बात मकया करता हूँ / और यह बात मेरी कमवता है ।’’ 2
वस्तुतः कोई भी व्यमक्त हो या मफर लेखक समाज को सवादा उपेमक्षत करके श्रेष्ठ सामहत्य सृमजत ही नहीं कर सकता । इसी संन्दभा में मत्रलोचन की मान्यता है- ‘‘ आदमी को सामान्यतः सामामजक कहा गया है । लेखक आदमी है । आदमी सामामजक है । अतः लेखक भी अमनवायातया सामामजक है । समाज को घेरने वाली समस्याएं अथवा मस्थमतयाँ उसको भी पकड़ती हैं । कोई भी लेखक इन पररमस्थमतयों को छोड़कर लेखक नहीं है ।’’ 3
वस्तुतः कमवता सामामजक समस्याओं का
अमवकल अनुवाद नहीं हुआ करती , न ही हो सकती
है । कमवता में कमव की कल्पना का अपना अलग
महत्व हुआ करता है । कमव की यह कल्पना भी यथाथा
कमव मत्रलोचन समाज के सदस्यों की बोली
से सवाथा असम्पृक्त हो ऐसा भी नहीं कहा जा सकता ,
क्योंमक वह यथाथा की ही मवधामयका होती है । कमवता
भार्षा को चाहे वह गृही , असभ्य सभ्य व शहराती हो
उसे बड़ी यथाथाता के साथ अमभव्यमक्त प्रदान करते
जीवन के कटुसत्यों के प्रमत स्वीकृ मत और उसके
हैं- “ सबकी बोली / बोली लाग-लपेट , टेक भार्षा
समाधान के नए मागों का अन्वेर्षि भी मकया करती
है । कमव मत्रलोचन की कमवता यथाथा का मजतना
समचत्र मचत्रांकन करती है उतना ही सामामजक
समस्याओं को समाधान भी प्रस्तुत करती है । मनुष्ट्य
मुहावरा / भाव
आचरि
इंमगत
मवशेर्षता
मफर
भोली / भूली इच्छाएं ...... गृही असभ्य सभ्य शहराती
या देहाती / सबके मलए मनमंत्रि है अपना जन
जाने / और पधारें इसको अपना ही घर मानें ।’’ 4
की अमस्मता को , उसके स्वत्व को अक्षत रखते हुए
उसे रचनात्मक कायों के प्रमत प्रेररत करती है । प्रेरिा
ऐसी की व्यमक्त संवेदना एवं ज्ञान का मवमशसे एवं
मंजुल समन्वय बनाए रख सके , क्योंमक व्यमक्त
संवेदना मवहीन होकर यन्त्र बन जायेगा और ज्ञान
मवहीन होकर मनधााररत जीवन लक्ष्यों से वंमचत रह
जायेगा । इन्हीं अथो में मत्रलोचन की कमवता
ज्ञानात्मक संवेदना एवं संवेदनात्मक ज्ञान का अद्भुत
साक्ष्य प्रस्तुत करती है । प्रगमतशील महन्दी कमवता के
मत्रलोचन के सामामजक सरोकारों के सन्दभा
में पुष्ट्पा अग्रवाल की मान्यता है- “ काव्य सृजन की
प्रमक्रया में मत्रलोचन की वैयमक्तक संवदेना मनवैयमक्तक
होकर आम आदमी से जुड़कर सामामजक धरातल का
आधार पाती है और समाज के शोमर्षत दमलत और
कमजोर वगा के जीवन संघर्षा की पीड़ा यातना का दुख
और अंदरूनी छटपटाहट के साथ साथ गत्यात्मक
होकर सामामजक सत्य की अमभव्यमक्त के मलए
Vol . 3 , issue 27-29 , July-September 2017 .
वर्ष 3 , अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017