Jankriti International Magazine Jankriti Issue 27-29, july-spetember 2017 | Page 358

Jankriti International Magazine/ जनकृसत अंतरराष्ट्रीय पसिका होना का पररचय मदया है। कबीर साहब ने जो अमभयान मध्यकाल में छे ड़ा था वह भले ही अध र ू ा रहा हो लेमकन समाज में आज वह मौज द ू है। आज भी लोग प्रमतरोध की शैली का अन स ु रि कर रहे हैं। धाममाक नीमतयों के मखलाफ, सामामजक उत्पीड़न क मखलाफ, भेद-भाव के मखलाफ मवरोध जता रहे ह और एकता और स्वतंत्रता का राग गा रहे हैं लेमकन देखना यह है की यह एकता, समानता और स्वतंत्रता कब हामशल होती है। आज जब हम इक्कीसवीं शताब्दी में जी रहे ह और हमारे समय में राष्ट्रीय-अन्तरााष्ट्रीय म द्द ु े या घटनाएं समाधान के मलए म ह ँ ु बाए खड़ी हैं तब हम धाममाक मसलों में पड़कर देश के भमवष्ट्य के साथ खेल रहे हैं। जबमक ऐसे च न ु ौती भरे वातावरि में हम धाममाक मसलों को भ ल कर उसका मनदान करना चामहए, लेमकन यह मसला धमा के आगे बौना पड़ जाता है और हमें ऐसे मवस्फोटक मवन्दु पर लाकर खड़ा कर देता है जहाँ से कोई मागा ममल पाना म म ु श्कल सा जान पड़ता है। इसीमलए कबीर ने कहा था मक- ISSN: 2454-2725 1. डॉ. मतवारी पारसनाथ, कबीर-बािी स ध ु ा, राका प्रकाशन, इलाहाबाद, 2011, 2. उपरोक्त. 3. आलोचना पमत्रका, राजकमल प्रकाशन, नई मदल्ली, अप्रैल-ज न ू , 2000, पृ.सं. 277. 4. डॉ. मतवारी पारसनाथ, कबीर-बािी स ध ु ा, राका प्रकाशन, इलाहाबाद, 2011, 5. 6. 7. 8. उपरोक्त. 9. चौधरी उमा श क र, मवमशा में कबीर, आधार प्रकाशन, हररयािा, 2011, पृ.सं. 39. 10. डॉ. मतवारी पारसनाथ, कबीर-बािी स ध ु ा, राका प्रकाशन, इलाहाबाद, 2011, "अरे इन दोउन राह न पाई। महन्द न ु की मह द ं व ु ाई देखी त र ु कन की त र ु काई। कहै कबीर स न ु ो भाई साधो कौन राह ह्वै जाई।" 10 इस तरह अगर सामामजक व्यवस्था, धाममाक व्यवस्था और राजनीमतक व्यवस्था को देखा जाए तो स त ं कबीर कल भी हमारे बीच मौज द ू थे और आज भी हमारे बीच मौज द ू हैं। जो हमारे 'मपछड़नेपन' की ओर संकेत करते हैं। िंदभक ग्रन्द्थ-िूची Vol. 3 , issue 27-29, July-September 2017. वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सित ब ं र 2017