Jankriti International Magazine Jankriti Issue 27-29, july-spetember 2017 | Page 325

Jankriti International Magazine / जनकृ सत अंतरराष्ट्रीय पसिका ISSN : 2454-2725
उनका अपना अनुभव है । के दार की आधुमनकता को इसीमलए ‘ ठेठ भारतीय आधुमनकता ’ के संदभा में ही समझना और समझाना उमचत होगा । बकौल के दार जी – “ मेरी आधुमनकता में मेरे गाँव और शहर के बीच का संबंध मकस तरह घमटत होता है , इस प्रश्न की मवकलता मेरे भाव-बोध का एक अमनवाया महस्सा है । ये दोनों मेरे भीतर हैं और दोनों में जो एक चुपचाप सहअमस्तत्व है , उसका संतुलन हमेशा एक-जैसा बना रहता हो , ऐसा नहीं है । इससे भारतीय कमव के भीतर एक नए ढंग का भाव-बोध पैदा होता है , जो पमिम से काफी मभन्न है ।” 2 यहाँ डॉ . श्यामसु ंदर दास की बातों का उल्लेख करना भी अप्रासंमगक न होगा – “ पमिमी व्यमक्त की मनयमत हमारी मनयमत मबलकु ल नहीं बन सकती । उसके यहाँ के अमानवीयपूिा अजनबीपन से उत्पन्न जीवन मवरोधी तत्व हमारे मलए प्रासंमगक नहीं हो सकते । हम अपनी ही जमीन से नए की तलाश करके आधुमनक बनने की कोमशश को इस संदभा में सही मानने को तैयार हैं । हमारा यथाथा अनेक मायनों में पमिमी दुमनया के यथाथा से एकदम मभन्न है ।” 3
आशय यह मक के दार की आधुमनकता को समझने के मलए पमिम की आधुमनकता के ‘ टूल ’ कई बार बेमानी सामबत हो सकते हैं , इसमलए यहाँ हम उनकी कमवताओंकी माफा त उनकी आधुमनकता और उनके बोध को समझने का प्रयास करेंगे ।
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के दार की कई कमवताएँ एक साथ पहली बार अज्ञेय के संपादन में मनकलने वाले ‘ तारसप्तक ’ में प्रकामशत हुई, ं तभी से यह कमव एक नए भावबोध के कमव के रूप में जाना-पहचाना जाने लगा । इससे पहले भी जब के दार की कमवताएँ लयबद्ध गीत के रूप में होती थी , तब भी उनके अंदर एक नए भावबोध की झलक ममलनी शुरू हो गई थी । लेमकन ‘ अभी
मबल्कु ल अभी ’ में कमव का वह नूतन रूप मुखर होता है । कमव ने इस संग्रह में ‘ मैं ’ की चेतना की पहचान की है । लेमकन यह ध्यान देने लायक बात है मक यह ‘ मैं ’ उसका व्यमक्त में सीममत न होकर नई संवेदना का आधार खड़ा करने के मलए उत्सुक मदखायी पड़ता है । आधुमनकता ने व्यमक्त की स्वकीय सत्ता और उसकी अमस्मता को स्थामपत करने की पहल की । पुरानी परम्पराएं व्यमक्त को एक समामजक उपकरि समझती थीं , वहाँ व्यमक्त के ‘ स्व ’ की पहचान मतरोमहत थी । आधुमनकताबोध ने पहली बार ‘ स्व ’ का दरवाजा खोला , फलतः व्यमक्त की सत्ता स्थामपत हुई , यह ‘ मैं ’ की सत्ता हमें महन्दी कमवता में मनराला और अन्य छायावादी कमवयों में भी मदखायी पड़ती है , लेमकन यही ‘ मैं ’ 50 के दशक के बाद जब के दार के यहाँ आता है तो एक मभन्न भार्षा और संवेदना के साथ – छोटे से आँगन में माँ ने लगाए हैं तुलसी के मबरवे दो मपता ने लगाया है बरगद छतनार
मैं अपना नन्हा गुलाब कहाँ रोप दू ! ं 4 इस कमवता में नन्हा गुलाब रोपने की जो आकांक्षा है , उसं ‘ मैं ’ की चेतना कहा जा सकता है । लेमकन इस आकांक्षा के पीछे एक मवद्रोह भी है । वह मवद्रोह है परम्परा के प्रमत । तुलसी और बरगद भारतीय परम्परा के प्रतीक समझे जायं , तो उन परम्पाराओं के बरक्श कमव नन्हे गुलाब के रूप में अपनी एक नूतन चेतना को स्थामपत करने का आकांक्षी है । यह आकांक्षा ‘ मैं ’ से उत्पन्न जरूर होती है , लेमकन इसके गहरे सामामजक सरोकार से इनकार नहीं मकया जा सकता । यह है के दार की अपनी आधुमनकता जो
Vol . 3 , issue 27-29 , July-September 2017 . वर्ष 3 , अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017