Jankriti International Magazine Jankriti Issue 27-29, july-spetember 2017 | Page 320

Jankriti International Magazine/ जनकृसत अंतरराष्ट्रीय पसिका लीलाधर मंडलोई का पररिेि -बोध और काव्य दृसि सिकाि कुमार यादि, शोध छात्र, भारतीय भार्षा कें द्र, जवाहरलाल नेहरू मवश्वमवद्यालय, 110067.) Email ID- [email protected] ISSN: 2454-2725 अतः लीलाधर म ड ं लीई की काव्य-्टमसे पर बात इनके वधामान होते पररवेश-बोध के समानांतर करना करना ज्यादा उमचत होगा । जीवन में संभतः सभी व्यमक्तयों का सबसे पहला बोध मां के रूप म होता है । स भ ं तः पद का प्रयोग इसमलए मक द भ ु ाानयवश कुछ लोगों को मां का प्यार नसीब नहीं होता है । मा मकसी भी व्यमक्त की ्टमसे के मनमााि में उसक पररवेश की महत्वप ि ू ा भ म ू मका होती है मफर वह चाह कमव हो या कोई और इससे फका नहीं पड़ता । जैसे- जैसे व्यमक्त के पररवेश का दायरा बढ़ता है वैसे-वैस उसकी ्टमसे का भी मवस्तार होता जाता है । पररवेश- बोध की मभन्नता के कारि हर एक का अपना पररवेश होता है । इसमलए हर व्यमक्त की ्टमसे भी मभन्न-मभन्न होती है । ्टमसे से अमभप्राय चीज़ों को देखने-परखन की हमारी मववेक-क्षमता से है । च ँम ू क पररवेश वह ह जो हमारी चेतना को छूता है । मजससे हमारी ्टमसे का मवकास होता है । पररवेश में बहुता सारी चीजें हैं जो हमारी चेतना को नहीं छूती है अतः हमारी ्टमसे क मनमााि में उनकी कोई भ म ू मका नहीं होती है । चेतना और पररवेश एक-द स ू रे को मनरूमपत-मनधााररत करत है यानी दोनों मे परस्पर वधामान का ररस्ता होता है । को बच्चा सबसे पहले चीन्हता है । मां सबसे पहल बच्चे की चेतना को छूती है । अतः बच्चे पहला पररवेश उसकी मां होती है । इसके पिात् मपता, पररवार, सम द ु ाय, समाज, प्रकृ मत आमद का बोध होता है । इस तरह से व्यमक्त के परवेश-बोध मवस्तार होता जाता है । इसी पररवेश-बोध से हमारी ्टमसे (मकसी भी वस्तु के देखने का नज़ररया) का मनमााि होता है । लीलाधर म ड ं लोई की ्टमसे, काव्य-्टमसे, संव द े ना-्टमसे आमद के मनमााि की भी प्रमक्रया यही है । उनके ही शब्दों में ‘‘छुटपन से चीजों तक जाने, देखने, छूने, चखने औक स न ु ने का एक भारा-प र ू ा मन था मेरे पास । और हमारा पररवार सतप ड़ ु ा की तलहटी में था सो सौंदया की सवात्र उपमस्थमत थी’’ 42 इसी तरह वह अपने पररवेश की के मज़द र ू ों तथा आमदवामसयों क रहन-सहन तथा खान-पान तथा प्रकृ मत से पररमचत हुए ‘‘इस क्रम में हम कोरकू, गोंड और भाररया 42 मंडलोई लीलाधर, मेरी रचना प्रक्रिया के स त्र Vol. 3 , issue 27-29, July-September 2017. संपादक ; सत्यकाम, समीक्षा / समीक्षा एवं शोध त्रैमाससक, अक्टूबर-माचच, 2017, वर्च 49, अंक 3-4, प . ृ 6 वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सित ब ं र 2017