Jankriti International Magazine Jankriti Issue 27-29, july-spetember 2017 | Page 245

Jankriti International Magazine / जनकृ सत अंतरराष्ट्रीय पसिका ISSN : 2454-2725
है अतः मकसी भी प्रकार के ररश्ते के मलए सामाज का रहना अमनवाया है । और इस सामाज के अमस्तत्व को बनाए रखने के मलए ही वे मनयमतवाद रचते हैं । यह सही है मक मृिाल की मस्थमत का मजम्मेदार मनमित रूप से वह समाज ही है जो आज भी स्त्री का प्रेम सहज स्वीकार नहीं कर पाता है । हमारे समाज में पमत- पररत्यक्त स्त्री या तो कु लता हो सकती है या मफर मुदाा । उसके मलए दूसरा कोई मवकल्प नहीं बचता है । मृिाल के मपता सामान भाई भी उसे यही समझाते हैं मक – “ पमत के घर के अलावा स्त्री का और क्या आसरा है । यह झूठ नहीं है मृिाल की पत्नी का धमा पमत है और गृह , पमत-गृह है । उसका धमा-कमा और मोक्ष वही है ।”( 3 ) हमारे समाज की मवडम्बना देमखये मक पमत- पररत्यक्ता स्त्री को उनका जन्मदाता पररवार भी स्वीकार नहीं करता है । हमारे समाज में छोड़ी गयी स्त्री का न तो कोई सम्मान है और न ही कोई घर । ऐसे में मृिाल के पास , समाज की ढलान पर खुद को मनढाल छोड़ देने के आलावा उपाय ही क्या था । वह समाज से अपने हक के मलए लड़ने की जगह आत्मोत्पीड़न का रास्ता चुनती है । समाज में स्त्री के अमधकार सम्बन्धी इस तरह के ज्वलंत प्रश्न उठाने के बाद भी जैनेन्द्र यह कहने को मववश हैं मक – “ बहुत कु छ जो इस दुमनया में हो रहा है वह वैसा ही क्यों होता , अन्यथा क्यों नहीं होता – इसका क्या उत्तर है ; उत्तर हो अथवा न हो , पर जान पड़ता है भामवत्य ही होता है । मनयमत का लेख बंधा है । एक भी अक्षर उसका यहाँ से वहां न हो सके गा । वह बदलता है , बदलेगा नहीं । जैनेन्द्र सामामजक व्यवस्था की कममयां उजागर तो करते हैं , लेमकन इनका समाधान वे मनयमतवाद में मदखाते हैं । मृिाल जीवन भर पूरे आत्मबल के साथ सामामजक मनयमों का पालन करती है । ‘ दूसरे पुरुर्ष ’ के मलए भी पूरे सेवाभाव से सममपात है , उसको मखलाने के बाद ही स्वयं खाती है । जबमक मृिाल यह
भली भांमत जानती है मक यह व्यमक्त आकर्षाि ख़त्म होते ही इसको छोड़ देगा , मफर भी मृिाल अपने भरतार की तरह उसकी सेवा करती है । यह मृिाल के बहाने जैनेन्द्र का साममजक व्यवस्था का स्वीकार नहीं तो और क्या है । कॉलेज के मदनों की चंचल और मनडर मृिाल कहीं भी सामाज में पररवतान की मांग क्यू ँ नहीं करती है । वह समाज के आगे खुद को मनढाल छोड़ देती है ।
जैनेन्द्र उपन्यास में तमाम प्रश्न उठाने के बाद भी कोई समाधान नहीं देते हैं । वे बस एक द्वन्द्ध पैदा करके छोड़ देते हैं मक क्या एक स्त्री के प्रेम और सत्य का यही पररिाम होना चामहए था । हाँ , प्रमोद का इस्तीफा जरुर तथाकमथत उच्च सामाज की आत्मनलामन का पमतारूप है । लेमकन मृिाल जैसे संभावनाशील जीवन की समामप्त के बाद इस इस्तीफे का क्या लाभ । त्यागपत्र पाठक को थोड़ा ठहरकर यह सोचने के मलए मववश जरुर करता है की शीला की गलती भी अपने सर ले लेने का माद्दा रखने वाली मृिाल के साथ इस समाज ने जो मकया क्या वह सही था ? और अगर नहीं तो इस सामाज का मवकल्प क्या होना चामहए ? क्या हमें सामामजक व्यवस्था में एक स्त्री की मस्थमत पर पुनमवाचार करने की आवश्यकता नहीं है ? इस प्रकार त्यागपत्र उपन्यास पाठक के मन में तमाम प्रश्न छोड़ता है । पाठक के मन को मथने वाले ये प्रश्न ही उपन्यास की बड़ी उपलमब्ध कहे जा सकते हैं ।
िन्द्दभक िूची आधार ग्रन्थ-
1- त्याग-पत्र , जैनेन्द्र कु मार , प्रकाशक- महन्दी-ग्रन्थ-रत्नाकर , काय ालय , बम्बई ,
Vol . 3 , issue 27-29 , July-September 2017 . वर्ष 3 , अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017