Jankriti International Magazine Jankriti Issue 27-29, july-spetember 2017 | Page 243

Jankriti International Magazine / जनकृ सत अंतरराष्ट्रीय पसिका ISSN : 2454-2725
व्यमक्तत्व की मवशेर्षताओं को नजदीक से देखा है । इसमलए उसे लगता है की उसकी बुआ दोर्षी नहीं हैं । भले ही समाज की नजर में पामपष्ठा हैं । लेमकन यहाँ अंतद्विंद्व यह है मक सब जानने के बाद भी प्रमोद बुआ के साथ खुलकर खड़ा नहीं हो पाता है । यहाँ तक मक आमथाक सहायता करने में भी प्रमोद की मुठ्ठी बंद ही रह जाती है । यहाँ एक ओर बुआ के मनदोर्ष होने का यकीन भी है और दूसरी ओर साममजक संस्कारों की प्रबलता भी । न तो वह बुआ को सही कह पाता है और न ही साममजक मान्यताओंको गलत ठहरा पाता है । क्या सही है क्या गलत , इस बात का द्वंद्व प्रमोद को अन्दर ही अन्दर सालता रहता है । इस मनः मस्थमत में प्रमोद स्वयं को सही और गलत की समीक्षा करने में असमथा महसूस करता है । एक तरफ सखी जैसी बुआ हैं और दूसरी ओर सामामजक मान्यताओं का दबाव । प्रमोद का यह मामन्सक अंतद्विंद्व ही जजी से इस्तीफे का कारि बनता है । प्रमोद का यह त्यागपत्र मसफा जज की नौकरी से ही नहीं है , बमल्क उस जड़ समाज से भी है , जहाँ के सामामजक संस्कार मकसी व्यमक्त के जीवन से ज्यादा ग्राह्य हैं । इस मनमाम साममजक व्यवस्था के दबाव के कारि ही प्रमोद अपनी बुआ को उसके प्रेम का प्रमतदान नहीं दे पाता है । प्रमोद आत्मसमीक्षा के समय कहता है की ऐसे नामवरी जीवन की क्या उपादेयता है । आज मैं जज हूँ लेमकन स्वयं से झूठ बोलकर । ‘ मेरे इस भरी-भरकम मोटे जाजी के शरीर में क्या राई मजतनी भी आत्मा है ।’ जैनेन्द्र इसी आत्मसमीक्षा के माध्यम से यह उद्घामटत करते हैं की इस व्यवस्था में जो भी बड़ा है या बन सका है वह अपनी आत्मा को कु चलकर ही । और मनमित ही आत्मा की कीमत पर बड़ा बनना श्रेष्ठ तो नहीं कहा जा सकता है ।
उपन्यास के प्रारंभ से ही मृिाल का चररत्र प्रयोगधमी जान पड़ता है । मृिाल को अपने कॉलेज
के मदनों में प्रेम हो जाता है और इस प्रेम में वह मकसी मचमड़या या पतंग की तरह मुक्त आकाश में उड़ना चाहती है । लेमकन सनातनी समाज में मकसी भी ममहला को प्रेम करने या साथी चुनने की आजादी नहीं है । पररिामस्वरूप मृिाल की भाभी को जब उसके प्रेम का पता चलता है , तब वे अपने साममजक संस्कारों का पालन करते हुए अपराधी मृिाल पर बेंत बरसाती हैं । मृिाल के प्रेम का पररिमत एक बेमेल मववाह के रूप में होती है , फलतः उसकी पढाई भी छू ट जाती है । मृिाल इसे मनयमत मानकर और मसखाये गए मनयमानुसार गृहस्थी चलने का प्रयास करती है । लेमकन वह अपने वैवामहक जीवन की शुरुआत सच्चाई के साथ करना चाहती है , इसीमलए वह अपने पमत को अपना प्रेम रूपी सच बता देती है । पररिामस्वरुप मृिाल का सच ही उसका शत्रु बन जाता है । स्वयं ‘ दुहाजू ’ होने के बाद भी पमत को पत्नी का प्रेम बदााश्त नहीं हो पाता है , और वे मृिाल को मायके भेज देते हैं । मृिाल को सच बोलने के बदले ‘ पमत-पररत्यक्ता ’ का तमगा ममलता है । पमत द्वारा त्याग मदए जाने के बाद से ही मृिाल की संघर्षा-गाथा शुरू होती है , और यहीं से ही जैनेन्द्र , उपन्यास में मनयमतवाद का प्रवेश कराते हैं । मृिाल का सच ही उसका अपराध बन जाता है ।
मृिाल ने अपने जीवन में कु ल तीन अपराध मकये , उसका पहला अपराध की उसने प्रेम मकया , उसका दूसरा अपराध की वह इस प्रेम को अनुमचत या गलत नहीं मानती है , और उसका तीसरा अपराध यह की वह अपने दाम्पत्य जीवन की नींव सच पर रखना चाहती है । मृिाल के ये तीनों अपराध ही उसके पूरे जीवन को एक ‘ रेजडी ’ बना देते हैं । क्योंमक हमारे सामाज में एक स्त्री को प्रेम करने या साथी चुनने की आजादी नहीं है , इसीमलए मृिाल का प्रेम उसके जीवन की सारी वेदना , सारे कसे का मूल
Vol . 3 , issue 27-29 , July-September 2017 . वर्ष 3 , अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017