Jankriti International Magazine Jankriti Issue 27-29, july-spetember 2017 | Page 172

Jankriti International Magazine/ जनकृसत अंतरराष्ट्रीय पसिका करता है और ख द ु बेदाग बच जाता है क्योंमक वह च प ु रहती है । स्त्री भोग तो जैसे उनका जन्म मसद्ध अमधकार है ऐसा सभी प रु ु र्ष समझते हैं । कपटी, चालाक, छलकपट से पररप ि ू ा प रु ु र्षों के चंग ल में फँ सकर अपना क ररयर व मज द ं गी बबााद कर लेती है । एक बार पतन की राह में मगरी तो संभल नहीं पाती; कुएँ के मेंढक की तरह बनी रहती है । प्रेममका ऐसी चामहए जो धरती की तरह सहन करती रहे , भावात्मक और शारीररक अत्याचार को सहन कर करुिा की प्रमतम म ू ता बनी रह । प्रेम तो उसकी देह तक पहु च ँ ने का एक छलावा है । उसे तो हमेशा देह की ही ज़रूरत थी । वतामान समय में प्रेम जैसे पमवत्र भाव को मजाक बना मदया गया है । प्रेम को मसफा प रु ु र्षों द्वारा देह की भ म ू म पर आँका जाता है । “स्त्री का स ब ं ध ं देह से लेकर देह से परे तक होता है , पर प रु ु र्ष उसे शरीर ही मानकर चलता रहा है । एक स्त्री के नाते उसके देह से परे कई स्तरीय स ब ं ध ं हो सकते है । प रु ु र्ष अक्सर स्त्री को शरीर के स्तर पर ही देखना चाहता है , जबमक वह उससे इतर भी होती ह ।” प्रेम को शारीररक तृमप्त का साधन बना मलया गया है । अमधकतर प रु ु र्षों का प्रेम वासना पर ही आकर क्यों ठहर जाता है ? प्रेम को मसफा समय व्यतीत करन का अच्छा साधन और भोग-मवलास का माध्यम बना मलया गया है । आज का य व ु ा प्रेममका रखना एक फ़ै शन समझता है । प रु ु र्ष आत्मा से आत्मा का पमवत्र ररश्ता क्यों नहीं समझता ? उसके तन-मन को छलता है , उसकी आत्मा को रोंदता है । क्यों बंधक बनी ह वह इन प रु ु र्षों की ? मजन्होंने बार-बार अपमान क मसवाय कुछ नहीं मदया । स्त्री प्रेममका हो या पत्नी दोनों ही रूप उसे द ः ु ख की ओर ले जाते हैं । “प्रेम शारीररक तृमप्त के मलए ज़रूरत के महसाब से मकया, मदया जाता है । प रु ु र्ष प्रेम करने के बदले में देता है , आजीवन दैमहक संबंध । स्त्री प रु ु र्ष के द्वारा छली जाती है , अपमामनत की जाती है और मफर वही म म ु क्त में बाधक करार कर दी जाती है । प्रेम व मववाह दोनों में अंतत: Vol. 3 , issue 27-29, July-September 2017. ISSN: 2454-2725 स्त्री ही छली जाती है । प रु ु र्ष ही जीतता है स्त्री प्रेममका हो या पत्नी दोनों रूपों में द ः ु ख पाती है । राधा प्रेम क नाम पर छली गयी, सीता मववाह के नाम पर ।” जब प रु ु र्ष अपना क ररयर बनाने या नौकरी पाने म सफलता प्राप्त कर लेता है तो अपनी प्रेममका को छोड़ देता है । मजतना उसे खेलना था प्रेममका रूपी मखलौन से तो खेल मलया; अब पत्नी रूपी मखलौने से खेलना चाहता है । प रु ु र्ष एक हाड़-मांस से भरी-प र ू ी स्त्री क अलावा और क्या चाहता है स्त्री में ? चाहे वह प्रेममका, पत्नी या कोई और हो ? उसने औरत को एक मजाक बना मदया है । उसका उपभोग करना ही उसकी मानमसकता बन गयी है । “मदावादी मवमशा में ‘इश्क- मोहब्बत-प्रेम’ सब मस्त्रयों को म ख ा बनाने के साधन ह । एक से मन भरा द स ू री सैंकड़ों हामजर हैं । आदममयों के जीवन में मस्त्रयों का स्थान ‘पान’ के शोंक की तरह है । ‘खाया-चबाया-थ क ू ा’ ।” एक प रु ु र्ष अनेक मस्त्रयों के साथ मखलवाड़ कर सकता है वह इस मखलवाड़ को च प ु चाप सहन कर लेती है । प रु ु र्ष प्रेम के नाम पर उसकी देह के साथ मखलवाड़ करते हैं । वह बोलेगी तो पररवार व समाज में चररत्रहीन समझी जायेगी । समाज ने क्यों उसके मन पर लाज, शमा , मयाादा और इज्जत के नाम पर पहरे लगा मदए ? जब एक बेटी, बहन, प्रेममका, पत्नी और माँ मवद्रोह कर देती है तब यह प र ू ा समाज बोखला जाता है ; डरता है उसक मवद्रोह से इसीमलए उसे दबाना चाहता है । इस भगवा चोले की आड़ में जो कुछ कर रहा है कहीं उससे पड़दा न उठ जाये । उसे जानना होगा मक उसकी च प् ु पी में ही प रु ु र्ष सत्ता की जीत है । मकसी स न ु सान जगह पर य प्रेमी बन जाते है भेमड़यें और कर देते है स्त्री के तन-मन को क्षत-मवक्षत । प्रेम के प्यार भरे स्पशा की जगह दररंदगी और वहमशयतपन के मनशान छोड़ देते हैं । “ओह ! चालू मदावादी मवमशा मकन-मकन हमथयारों को लाता है । अपने पंजे और नाख़ न ू वह कहाँ-कहा च भ ु ोता है , प्रेम के नाम पर ही सही ।” प रु ु र्षप्रधान वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017