Jankriti International Magazine/ जनकृसत अंतरराष्ट्रीय पसिका
करता है और ख द ु बेदाग बच जाता है क्योंमक वह च प ु
रहती है । स्त्री भोग तो जैसे उनका जन्म मसद्ध अमधकार
है ऐसा सभी प रु ु र्ष समझते हैं । कपटी, चालाक,
छलकपट से पररप ि ू ा प रु ु र्षों के चंग ल
में फँ सकर अपना
क ररयर व मज द ं गी बबााद कर लेती है । एक बार पतन
की राह में मगरी तो संभल नहीं पाती; कुएँ के मेंढक
की तरह बनी रहती है । प्रेममका ऐसी चामहए जो धरती
की तरह सहन करती रहे , भावात्मक और शारीररक
अत्याचार को सहन कर करुिा की प्रमतम म ू ता बनी रह
। प्रेम तो उसकी देह तक पहु च ँ ने का एक छलावा है ।
उसे तो हमेशा देह की ही ज़रूरत थी । वतामान समय
में प्रेम जैसे पमवत्र भाव को मजाक बना मदया गया है ।
प्रेम को मसफा प रु ु र्षों द्वारा देह की भ म ू म पर आँका जाता
है । “स्त्री का स ब ं ध ं देह से लेकर देह से परे तक होता
है , पर प रु ु र्ष उसे शरीर ही मानकर चलता रहा है । एक
स्त्री के नाते उसके देह से परे कई स्तरीय स ब ं ध ं हो
सकते है । प रु ु र्ष अक्सर स्त्री को शरीर के स्तर पर ही
देखना चाहता है , जबमक वह उससे इतर भी होती ह
।” प्रेम को शारीररक तृमप्त का साधन बना मलया गया
है । अमधकतर प रु ु र्षों का प्रेम वासना पर ही आकर
क्यों ठहर जाता है ? प्रेम को मसफा समय व्यतीत करन
का अच्छा साधन और भोग-मवलास का माध्यम बना
मलया गया है । आज का य व ु ा प्रेममका रखना एक
फ़ै शन समझता है । प रु ु र्ष आत्मा से आत्मा का पमवत्र
ररश्ता क्यों नहीं समझता ? उसके तन-मन को छलता
है , उसकी आत्मा को रोंदता है । क्यों बंधक बनी ह
वह इन प रु ु र्षों की ? मजन्होंने बार-बार अपमान क
मसवाय कुछ नहीं मदया । स्त्री प्रेममका हो या पत्नी दोनों
ही रूप उसे द ः ु ख की ओर ले जाते हैं । “प्रेम शारीररक
तृमप्त के मलए ज़रूरत के महसाब से मकया, मदया जाता
है । प रु ु र्ष प्रेम करने के बदले में देता है , आजीवन
दैमहक संबंध । स्त्री प रु ु र्ष के द्वारा छली जाती है ,
अपमामनत की जाती है और मफर वही म म ु क्त में बाधक
करार कर दी जाती है । प्रेम व मववाह दोनों में अंतत:
Vol. 3 , issue 27-29, July-September 2017.
ISSN: 2454-2725
स्त्री ही छली जाती है । प रु ु र्ष ही जीतता है स्त्री प्रेममका
हो या पत्नी दोनों रूपों में द ः ु ख पाती है । राधा प्रेम क
नाम पर छली गयी, सीता मववाह के नाम पर ।”
जब प रु ु र्ष अपना क ररयर बनाने या नौकरी पाने म
सफलता प्राप्त कर लेता है तो अपनी प्रेममका को छोड़
देता है । मजतना उसे खेलना था प्रेममका रूपी मखलौन
से तो खेल मलया; अब पत्नी रूपी मखलौने से खेलना
चाहता है । प रु ु र्ष एक हाड़-मांस से भरी-प र ू ी स्त्री क
अलावा और क्या चाहता है स्त्री में ? चाहे वह
प्रेममका, पत्नी या कोई और हो ? उसने औरत को एक
मजाक बना मदया है । उसका उपभोग करना ही उसकी
मानमसकता बन गयी है । “मदावादी मवमशा में ‘इश्क-
मोहब्बत-प्रेम’ सब मस्त्रयों को म ख
ा बनाने के साधन ह
। एक से मन भरा द स ू री सैंकड़ों हामजर हैं । आदममयों
के जीवन में मस्त्रयों का स्थान ‘पान’ के शोंक की तरह
है । ‘खाया-चबाया-थ क
ू ा’ ।” एक प रु ु र्ष अनेक मस्त्रयों
के साथ मखलवाड़ कर सकता है वह इस मखलवाड़
को च प ु चाप सहन कर लेती है । प रु ु र्ष प्रेम के नाम पर
उसकी देह के साथ मखलवाड़ करते हैं । वह बोलेगी
तो पररवार व समाज में चररत्रहीन समझी जायेगी ।
समाज ने क्यों उसके मन पर लाज, शमा , मयाादा और
इज्जत के नाम पर पहरे लगा मदए ? जब एक बेटी,
बहन, प्रेममका, पत्नी और माँ मवद्रोह कर देती है तब
यह प र ू ा समाज बोखला जाता है ; डरता है उसक
मवद्रोह से इसीमलए उसे दबाना चाहता है । इस भगवा
चोले की आड़ में जो कुछ कर रहा है कहीं उससे पड़दा
न उठ जाये । उसे जानना होगा मक उसकी च प् ु पी में ही
प रु ु र्ष सत्ता की जीत है । मकसी स न ु सान जगह पर य
प्रेमी बन जाते है भेमड़यें और कर देते है स्त्री के तन-मन
को क्षत-मवक्षत । प्रेम के प्यार भरे स्पशा की जगह
दररंदगी और वहमशयतपन के मनशान छोड़ देते हैं ।
“ओह ! चालू मदावादी मवमशा मकन-मकन हमथयारों
को लाता है । अपने पंजे और नाख़ न ू वह कहाँ-कहा
च भ ु ोता है , प्रेम के नाम पर ही सही ।” प रु ु र्षप्रधान
वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017