Jankriti International Magazine Jankriti Issue 27-29, july-spetember 2017 | Page 163

Jankriti International Magazine/ जनकृसत अंतरराष्ट्रीय पसिका शारीररक व मानमसक उत्पीड़न के बावज द ू वह टूटती नहीं बमल्क अपने प्रेमी मदलीप से मववाह करने का फै सला लेती है। जब मदलीप गाँव वालों के डर से स म ु न को गाँव छोड़कर भाग चलने के मलए कहता है तो स म ु न पलायन की अपेक्षा संघर्षा का रास्ता अपनाती है और गाँव में ही रहने का मनिाय लेती है। जो एक मनबाल व सहमी नहीं बमल्क एक सबल ‘मवधवा’ क प्रमतरोध की अमभव्यमक्त है। यह सच है की वतामान सदी में ममहलाओ ं न अनेक कीमतामान गढ़े हैं। आज मस्त्रयों ने समाज म अपनी स्वतंत्रता, अपने वचास्व का परचम लहराया है। उसने प रु ु र्ष सत्ता के बरक्स अपना एक अलग एव अहम अमस्तत्व कायम मकया है। मकंतु मवडंबना यह भी है मक स्त्री-स्वातंत्र्य की इस छीना-झपटी में मस्त्रयों ने अपने नैसमगाक चररत्र का हनन भी मकया है। अमधकार, हक व प रु ु र्ष से बराबरी की इस होड़ म अपनी उच्छृ ं खलता को ही अपनी वास्तमवक स्वत त्र ं ता व स्त्री-सशमक्तकरि का वास्तमवक पयााय मान बैठी हैं। च म ं ू क कहानीकार का उद्देश्य होता ह पाठक के समक्ष यथाथा को प्रस्त त ु करना। अतः वतामान मह द ं ी कहामनयाँ स्त्री के इस ‘उच्छृ ं खल’ रूप को भी बड़ी बेबाकी से प्रस्त त ु करती हैं। कहानी ‘स त्र ं ामसत म ख ौटा’ की ‘रीटा’ के मबचार वतामान मस्त्रयों के उस रूप पर एक तीखा व्य ग ं करती है , जो प रु ु र्ष जैसा चररत्र धारि कर उसके पदमचह्नों पर चलन को उतावली हैं। वह कहती है- “कभी-कभी लगता ह मक भ ख -प्यास से भी अमधक महत्वप ि ू ा है काम- वासना। प रु ु र्षों में होड़ मची है मक रोज मकतनी औरतों को स्पशा करना है। मन ही मन महसाब लगाते हैं। घर में बीबी है तो क्या, वो तो रोज की बात है। मगर नई- नई लड़मकयां , जवान मजस्म, आम म ं त्रत कर ते अ ग ं - उघाडू वस्त्र, यही चलन होता जा रहा है। प रु ु र्ष मनोवृमत्त भी काम क होती जा रही है। लड़मकयां भी अपन आपको प रु ु र्षों को आकमर्षात करने का साधन समझन Vol. 3 , issue 27-29, July-September 2017. ISSN: 2454-2725 लगी हैं। कहीं-कहीं लड़मकयां भी छे ड़ खानी का आनंद उठाने लगी हैं। आमखर वें भी इ स ं ान हैं। ए ज ं ॉय करने का हक मसफा मदों को नहीं है”। वहीं अंजु द आ जैममनी की कहानी ‘बताना जरूरी है क्या’ आज की उच्छृ ं खल स्त्री को ररप्रजेंट करती है। कहानी की नामयका इतनी बोल्ड है मक बैंककमी द्वारा उसक प्रोफे शन के बारे में प छ े जाने पर वह कहती है- “डोंट राइट हाउसवाइफ। मैं प्रोफे शन में हू । ँ आई एम प्रोफे शनल कॉलगला”। इतना ही नहीं वह आगे कहती है- “मेरी कोई मजब र ू ी नहीं थी। मेरे साथ कोई हादशा नहीं हुआ। म झ ु े इस पेशे में मकसी ने जबरदस्ती नहीं धके ला। मैं इसमे अपनी मजी से आई हू । ँ ....अमीर खानदान से हूँ सो धन की कोई कमी नहीं थी। मसफ मस्ती के मलए मैंने इस प्रोफे शन में कदम रखा”। स्पसे है मक 21वीं सदी की यह नारी न तो गरीबी के कारि इस ध ध ं े में आयी न तो उसकी कोई अन्य मववशता है। वह मसफा अपने शौक व ए ज ं ॉयमेंट के मलए यह काय करती है। वास्तव में यह आज के समय की सबसे बड़ी सच्चाई है। फरााटेदार अ ग्र ं ेजी बोलने वाली अमधकांश कॉलगला स प ं न्न पररवारों की होती हैं। जो कम समय में अमधक से अमधक पैसा कमा लेने और आसानी स आध म ु नक स ख स म ु वधाओ ं के भोग की ख़्वामहश म इस रास्ते को सहर्षा स्वीकार करती हैं। वस्त त ु ः यह सत्य है की मस्त्रयों की भी अपनी भौमतक व शारीररक इच्छाएँ व महत्वाकांक्षाएँ होती ह और उनकी प म ू ता आवश्यक भी है। मकन्तु मवडंबना यह है मक आज मशमक्षत एवं जागरूक मस्त्रयाँ भी इनकी प म ू ता के मलए गलत रास्ते अमख़्तयार कर रहीं है। यहा तक की अपने कै ररयर को ऊँचाइयों पर ले जाने क मलए अपनी देह का उपयोग करने से भी नहीं कतराती। कहानी ‘वह लड़की’ की ‘रोजी’ ऐसी ही स्त्री है जो अपने बॉस के यौन आम त्र ं ि को स्वीकार कर प्रमोशन पा लेती है। तो वहीं कमवता की कहानी ‘उस पार की रोशनी’ की वमताका गृहस्थ नारी के उस रूप को वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017