Jankriti International Magazine/ जनकृसत अंतरराष्ट्रीय पसिका
है- “मतलब आप नंगा नाचने को कहें तो हम वो भी
करें ”। वहीं द स ू री तरफ ग्रामीि पररवेश से संबंध रखन
वाली ‘सांच है प्रेम’ की सब्जी बेचने वाली ‘हँसली’
बड़ी दबंगई के साथ ‘रत्त ’ ू से कहती है- “स न ु रे रत्त , ू म
तेरी नीयत को जानती हू । ँ तू जो लप्पर-चप्पर करता ह
न, वह कुत्ते की भौं-भौं जैसा लगता है। म झ ु े इधर तेरी
आँखों में अजीब-सी चमक आने लगी है जैसे मबल्ली
की आँखों में होती है , पर त झ ु े एक बात साफ-साफ
कह द । ं ू हँसली ऐसी-वैसी लड़की नहीं है। सड़क का
नलका नहीं है मक कोई भी आता-जाता पानी पी ले”।
कहानी में हँसली मकसी भी मायने में अपने को
कमजोर नहीं मानती। इस मपतृसत्तात्मक समाज में एक
स्त्री का प रु ु र्ष के मबना अके ले रहना बड़ा ही कमठन
है। लेमकन हँसली पमत और मपता के अभाव में भी
अपनी ब ढ़ ू ी माँ के साथ गाँव में बड़ी गररमा और
सम्मान के साथ रहते हुए लोगों की ललचाई नजरों स
ख द ु को बचाती है। वह अपने अमस्तत्व पर कु्टमसे
डालने वाले प रु ु र्षों को म ह ु तोड़ जवाब देते हुए स्पसे
कहती है मक- “म झ ु े कोई सड़क की फें की हुई रोटी न
समझे मक उठाई और खा ली। म झ ु े रात का फें का हुआ
आटा न जाने मक घर जाकर तवे पर मबछा मदया”।
कहानीकार ने इस कहानी के माध्यम से आज की
सबल नारी का रूप प्रस्त त ु मकया है , जो गलत होने पर
भ्रसे हवलदार या प म ु लस वाले को भी फटकार लगान
से ग र ु े ज़ नहीं करती।
आज लड़मकयां मकसी भी मायने में लड़कों
से कम नहीं हैं। वे अपनी मशक्षा और जागरुता के बल
पर अपने सस र ु ाल के साथ-साथ अपने माता-मपता क
प्रमत भी मजम्मेदाररयों का मनवाहन बाख ब ू ी करती हैं।
आज अम म ू न मस्त्रयाँ अपने ब ढ़ ू े माता-मपता का सहारा
बनना चाहती हैं। घर में भाई के ना होने पर वे , बेटी
होने के वास्तमवक उत्तरदामयत्व को मनभाना चाहती हैं ,
इसके मलए वह पमत और सस र ु ाल वालों से लड़ने का
सामथ्या भी रखती हैं। कहानी ‘जाग उठी है नारी’ की
Vol. 3 , issue 27-29, July-September 2017.
ISSN: 2454-2725
नामयका ‘भ म ू म’ वतामान स्त्री के इसी रूप का प्रतीक
बनकर उभरती है। जो अपने ब ढ़ ू े माँ-बाप के जीवन
मनवाहन का सहारा बनने हेत , ु पमत ‘शोभन’ के द्वारा
मदए गए तलाक के पेपर तक साइन कर देती है। वह
कोटा में बड़े तका प ि ू ा ढंग से अपनी बातों को जज क
सामने रखती है और शोभन के द्वारा लगाए गए झ ठ ू े
आरोपों को गलत भी सामबत करती है। वह कहती है-
“मेरे ऊपर लगाया गया आरोप बेब म ु नयाद है जज
साहब। मैं कोई पैसा शोभन की कमाई का नहीं
ल ट ु ाती। मैं तो अपनी तनख्वाह में से बेसहारा माँ-बाप
की मदद करके अपना फजा अदा करती हू । ँ मजस माँ-
बाप ने पाल-पोसकर म झ ु े बड़ा मकया, पढ़ा मलखाकर
नौकरी लगवाई। आज वे ब ढ़ ू े और लाचार हैं। उनकी
मेरे मसवा कोई और संतान नहीं तो क्या मैं भी अपन
कत्ताव्यों से मबम ख
हो जाऊँ। नहीं जज साहब! मैं ऐसा
नहीं कर सकती। समाज पतन की ओर जाएगा। यमद
बेटी माँ-बाप का सहारा नहीं बन सकती तो कौन देगा
पररवार में कन्याओ ं को जन्म? कन्या भ्र ि ू हत्याए
होंगी। अब नारी को ही कुछ करना होगा, उसे जागना
होगा, आज मै जाग उठी हू , ँ कल कोई और जागेगा”।
आज मस्त्रयों की इसी सोच ने बेमटयों को भी घर-
पररवार में बेटों के समान अमधकार व सम्मान मदलाया
है। आज वें घर में बोझ नहीं बमल्क पररवार का
बहुम ल् ू य महस्सा है।
वतामान मह द ं ी कहानीकारों ने अपनी कहानी
के माध्यम से न के वल मववामहत अथवा अमववामहत
मस्त्रयों के बदलते सशक्त स्वरूप का मचत्रि मकया है।
बमल्क मवधवा तथा तलाकसुदा मस्त्रयों की बदलती
छमव को पेश करते हुए उनके प न ु मवावाह के प्रमत
परंपरागत मानमसकता को पररवमतात करने में भी
सफलता हामसल की है। कहानी ‘आ च ं ’ की बाल
मवधवा ‘स म ु न’ उसकी जमीन हड़पने और इज्जत
ल ट ू ने आये पंमडत जगन्नाथ और ठे केदार
मामिकलाल की आँखों में ममचा झोंक देती है। अपन
वर्ष 3, अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017