Jankriti International Magazine Jankriti Issue 27-29, july-spetember 2017 | Page 161

Jankriti International Magazine / जनकृ सत अंतरराष्ट्रीय पसिका ISSN : 2454-2725
पररमस्थमतयों व वातावरि के आधार पर मस्त्रयों की
खटखटाऊं गी ”। कहानी के अंत में ऊहापोह की
बदलती छमवयों को मवश्लेमर्षत मकया है ।
मस्थमत में फसी ‘ सरोज ’ एक सशक्त और सक्षम चररत्र
वतामान महंदी कहानी स्त्री के सशक्त होते
तमाम रूपों को उद्घामटत करती है मजनका अध्ययन
करने से स्वतः मसद्ध हो जाता है मक- स्त्री अब स्वयं
को अबला नहीं सबला के रूप में स्थामपत करती है ।
वे अपनी अन्तः-बाह्य मस्थमतयों पर मचंतन-मनन
करती हुई अपने मलए एक नयी राह के अन्वेर्षि में
लगी है । आज की कहामनयों की अमधकांश नारी पात्र
परंपरागत ढांचे को तोड़ देने को तत्पर हैं । कहानी
‘ घरौंदा नहीं , घर ’ की ‘ सरोजा ’ भी अपनी दुगामत के
कारिों को जानकर उस पर मवचार-मंथन करती है ।
वह सोचती है- “ क्यों नहीं मैं लादे हुए बंधनो को
तोड़ती हूँ ? सच कहती हूँ मक अपने को मतल-मतल व
मारने वाली मैं , क्यों डरती हूँ मक यमद मैं पमत द्रोह
करूं गी या उससे अलग हो जाऊं गी तो मेरे चारों ओर
‘ मछनाल ’ शब्द का भयंकर शोर मच जाएगा ? मेरे
सतीत्व पर कीचड़ के छींटे पड़ने लगेंगे । जैसे मेरा सारा
व्यमक्तत्व और अच्छाइयाँ ही समाप्त हो जाएंगी ।
इसीमलए तो मुझे बार-बार संदेह होता है मक मैं मवद्रोह
के रूप में सामने आती है । वह सरकारी नौकरी प्राप्त
कर अनाममका को गोद लेकर अपनी एक अलग
दुमनयाँ बसाती है । वास्तव में पुरुर्ष पर स्त्री की मनभारता
ने उसे उसके हकों व अमधकारों से वंमचत करने में बड़ी
भूममका मनभाई है । मकं तु आज की नारी ने अपनी शमक्त
को पहचाना है । आज की स्त्री पुरुर्षों द्वारा उनसे छल
मकए जाने पर यह कदामप नही सोचती की अब उसका
आगे क्या होगा । ‘ वाह मकन्नी , वाह ’ की ‘ मदवाली ’
भी अपने पमत के मघनौनेपन को सहने के मलए
अमभशप्त नहीं है । वह अपने पमत के मकसी अन्य औरत
से संबंध को जानकर टूटती व मभखरती नहीं है । बमल्क
वह अपने आत्मसम्मान व अमस्तत्व की रक्षा करते
हुए कहती है- “ मैं आप जैसे लम्पट पर थूकती हूँ । मैंने
आपकी मकतनी इज्जत की है , पर आप मक्कार व
लुगाईखोर हैं । मैं ममनखोरी नहीं हूँ । के वल पेट भरने के
मलए आपके पास नहीं रहूँगी । मेरे हाथों-पावों और
शरीर में बड़ी ताकत है । मेहनत मजदूरी करके पेट भर
लू
ंगी ”।
नहीं कर रहीं हूँ । मवद्रोह करने की क्षमता मुझमें नहीं है ।
इस दौर की महंदी कहामनयों में ‘ स्त्री ’ शहरी
है तो मुझमें मत्रया-हठ । वरना मुझे मवद्रोह तो कर देना
हो या ग्रामीि वह प्रेमचंद की नामयका ‘ गंगी ’( ठाकु र
चामहए । यमद ऐसा नहीं करूं गी तो मेरी देह का
का कु आं ) के समान मूक प्रमतरोध दज़ा नहीं करती
मरिासन्न रूप में मवर्ष-मंथन होता रहेगा ”। अंततः
बमल्क अपने ऊपर होने वाले छोटे बड़े सभी प्रकार के
सरोजा अपने पमत और ससुर के अत्याचारों से तंग
अत्याचारों का खुलकर प्रमतरोध व प्रमतकार करती
आकर , समाज की बनाई गयी खोखली मान्यताओंव
नजर आती है । मजबूरी बस ना तो वो कोई काम करना
परंपराओं को दरमकनार कर अपने पमत का घर छोड़
चाहती है और न ही मकसी को अपना फायदा उठाने
देती है । इतना ही नहीं , मशमक्षत सरोजा अपने
देती है । एक ओर अनीता गोपेश की कहानी ‘ अन्ततः ’
अमधकारों से पररमचत होने के साथ-साथ उन
की ‘ मदव्या ’ जो एक नाटक कं पनी में में काम करती
अमधकारों का प्रयोग करना भी जानती है । वह अपने
है । मनदेशक द्वारा मदये गए छोटे कपड़े को पहन कर
पमत को चुनौती देते हुए कहती है- “ पत्नी सदा सहन
नृत्य करने से इनकार कर देती है । व स्पसे शब्दों में
करती है मक घर का नंगापन बाहर न जाये । पर आप
कहती है- “ सर ! माफ कररएगा मैं इस पोशाक में डांस
तो अन्याय पर अन्याय कर रहें है । सुमनये , मैं तीन मदनों
नहीं कर पाऊँ गी ।”
मनदेशक द्वारा अनुबंधन का
की मोहलत देती हूँ मफर मैं अदालत के दरवाजे
फायदा उठाये जाने पर वह और जोर देते हुए बोलती
Vol . 3 , issue 27-29 , July-September 2017 .
वर्ष 3 , अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017