पररमस्थमतयों व वातावरि के आधार पर मस्त्रयों की |
खटखटाऊं गी ”। कहानी के अंत में ऊहापोह की |
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बदलती छमवयों को मवश्लेमर्षत मकया है । |
मस्थमत में फसी ‘ सरोज ’ एक सशक्त और सक्षम चररत्र |
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वतामान महंदी कहानी स्त्री के सशक्त होते
तमाम रूपों को उद्घामटत करती है मजनका अध्ययन
करने से स्वतः मसद्ध हो जाता है मक- स्त्री अब स्वयं
को अबला नहीं सबला के रूप में स्थामपत करती है ।
वे अपनी अन्तः-बाह्य मस्थमतयों पर मचंतन-मनन
करती हुई अपने मलए एक नयी राह के अन्वेर्षि में
लगी है । आज की कहामनयों की अमधकांश नारी पात्र
परंपरागत ढांचे को तोड़ देने को तत्पर हैं । कहानी
‘ घरौंदा नहीं , घर ’ की ‘ सरोजा ’ भी अपनी दुगामत के
कारिों को जानकर उस पर मवचार-मंथन करती है ।
वह सोचती है- “ क्यों नहीं मैं लादे हुए बंधनो को
तोड़ती हूँ ? सच कहती हूँ मक अपने को मतल-मतल व
मारने वाली मैं , क्यों डरती हूँ मक यमद मैं पमत द्रोह
करूं गी या उससे अलग हो जाऊं गी तो मेरे चारों ओर
‘ मछनाल ’ शब्द का भयंकर शोर मच जाएगा ? मेरे
सतीत्व पर कीचड़ के छींटे पड़ने लगेंगे । जैसे मेरा सारा
व्यमक्तत्व और अच्छाइयाँ ही समाप्त हो जाएंगी ।
इसीमलए तो मुझे बार-बार संदेह होता है मक मैं मवद्रोह
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के रूप में सामने आती है । वह सरकारी नौकरी प्राप्त
कर अनाममका को गोद लेकर अपनी एक अलग
दुमनयाँ बसाती है । वास्तव में पुरुर्ष पर स्त्री की मनभारता
ने उसे उसके हकों व अमधकारों से वंमचत करने में बड़ी
भूममका मनभाई है । मकं तु आज की नारी ने अपनी शमक्त
को पहचाना है । आज की स्त्री पुरुर्षों द्वारा उनसे छल
मकए जाने पर यह कदामप नही सोचती की अब उसका
आगे क्या होगा । ‘ वाह मकन्नी , वाह ’ की ‘ मदवाली ’
भी अपने पमत के मघनौनेपन को सहने के मलए
अमभशप्त नहीं है । वह अपने पमत के मकसी अन्य औरत
से संबंध को जानकर टूटती व मभखरती नहीं है । बमल्क
वह अपने आत्मसम्मान व अमस्तत्व की रक्षा करते
हुए कहती है- “ मैं आप जैसे लम्पट पर थूकती हूँ । मैंने
आपकी मकतनी इज्जत की है , पर आप मक्कार व
लुगाईखोर हैं । मैं ममनखोरी नहीं हूँ । के वल पेट भरने के
मलए आपके पास नहीं रहूँगी । मेरे हाथों-पावों और
शरीर में बड़ी ताकत है । मेहनत मजदूरी करके पेट भर
लू
ंगी ”।
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नहीं कर रहीं हूँ । मवद्रोह करने की क्षमता मुझमें नहीं है । |
इस दौर की महंदी कहामनयों में ‘ स्त्री ’ शहरी |
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है तो मुझमें मत्रया-हठ । वरना मुझे मवद्रोह तो कर देना |
हो या ग्रामीि वह प्रेमचंद की नामयका ‘ गंगी ’( ठाकु र |
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चामहए । यमद ऐसा नहीं करूं गी तो मेरी देह का |
का कु आं ) के समान मूक प्रमतरोध दज़ा नहीं करती |
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मरिासन्न रूप में मवर्ष-मंथन होता रहेगा ”। अंततः |
बमल्क अपने ऊपर होने वाले छोटे बड़े सभी प्रकार के |
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सरोजा अपने पमत और ससुर के अत्याचारों से तंग |
अत्याचारों का खुलकर प्रमतरोध व प्रमतकार करती |
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आकर , समाज की बनाई गयी खोखली मान्यताओंव |
नजर आती है । मजबूरी बस ना तो वो कोई काम करना |
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परंपराओं को दरमकनार कर अपने पमत का घर छोड़ |
चाहती है और न ही मकसी को अपना फायदा उठाने |
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देती है । इतना ही नहीं , मशमक्षत सरोजा अपने |
देती है । एक ओर अनीता गोपेश की कहानी ‘ अन्ततः ’ |
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अमधकारों से पररमचत होने के साथ-साथ उन |
की ‘ मदव्या ’ जो एक नाटक कं पनी में में काम करती |
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अमधकारों का प्रयोग करना भी जानती है । वह अपने |
है । मनदेशक द्वारा मदये गए छोटे कपड़े को पहन कर |
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पमत को चुनौती देते हुए कहती है- “ पत्नी सदा सहन |
नृत्य करने से इनकार कर देती है । व स्पसे शब्दों में |
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करती है मक घर का नंगापन बाहर न जाये । पर आप |
कहती है- “ सर ! माफ कररएगा मैं इस पोशाक में डांस |
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तो अन्याय पर अन्याय कर रहें है । सुमनये , मैं तीन मदनों |
नहीं कर पाऊँ गी ।” |
मनदेशक द्वारा अनुबंधन का |
की मोहलत देती हूँ मफर मैं अदालत के दरवाजे |
फायदा उठाये जाने पर वह और जोर देते हुए बोलती |
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Vol . 3 , issue 27-29 , July-September 2017 . |
वर्ष 3 , अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017 |