Jankriti International Magazine Jankriti Issue 27-29, july-spetember 2017 | Page 148

Jankriti International Magazine / जनकृ सत अंतरराष्ट्रीय पसिका ISSN : 2454-2725
हो ; स्वेद , स्तम्भ , रोमांच , स्वरभंग , कम्प , वैवण्या , अश्रु ( प्रलय ) आमद आठ सामत्वक भाव का भण्डार हो ; संयममत ( सदाचारी ) योगीजन का मनमनधान ( प्रमिधान ) हो ; कामदेव के बाि के मादन , उन्मादन , प्रक्षोभन , संयोजन एवं सम्मोहन आमद पाँच गुिों जैसा संधानशमक्त हो ।
गृहलक्ष्मी-िणकन
मैमथल स्त्री को दाम्पत्य जीवन में कमठन पररश्रम करना पड़ता है । मैमथल मपतृसत्त्तामक समाज के द्वारा स्थामपत कठोर मनयम और अनुशासन को मैमथल स्त्री पत्नी के रुप में पालन करती है , यथा- पमत को प्रेमपूवाक खाना मखलाना , मु ँह-हाथ को अपने आँचल से पोंछना , पीने के मलए दूध देना , दाँत स्वच्छ करने के मलए सींकी देना , ..., पान मखलाकर मुखशुद्ध कराना । यह मैमथल स्त्री के पमतप्रेम और अपूवा कताव्यमनष्ठा के समममश्रि का एक अनोखा स्वरुप है- ” िुिणकक चौरा ....... मुखिुसि उिमल ” [ पृ . िं . 88 , पंसक्त िं 5-16 ]
प्रस्तुत पंमक्तयों में कमवशेखराचाया ने मैमथल संस्कृ मत में पगी आदशा गृहलक्ष्मी का स्वरुप दशााते हुए उसके मवशुद्ध दांपत्य , पमत प्रेम-भाव एवं कताव्यपरायिता का उल्लेख मकया है जो पमत के देखभाल के मलए सदैव समामपत रहती है । धमापत्नी का ऐसा अलौमकक और सामत्वक स्वरुप अन्यत्र दूलाभ है । सुन्दरी ( पत्नी ) सोना के कटोरे को दूध से भरती है तथा मचउरा पर दही देने लगती है । दही काटते समय तथा मलाई टूटने के समय उसका पल्लव स्टश कर-कमल काँपने लगता है एवं बतान स्तंमभत ( महलने-डोलने ) होने लगता है । सोना के चम्मच से मलाई को उपर से हटाकर शंख स्टश श्वेत दही को पड़ोसती है । मलाई इतनी मचकनी है , मजससे तालु और जीभ में परस्पर मववाद खड़ा हो जाता है । चीन देश से ( पंच बनकर ) आये एक प्रकार के शका रे ( जो बाद में समस्त भारत में चीनी कहलाने
लगा ) को देने पर मववाद का अन्त होता है । उसके बाद मुगबा , लमड़बी , सरुआरी , मधुकु पी माठ , फे ना , मतलबा इत्यामद पकवान ( ममष्ठान ) पड़ोसती है । नायक ( पमत ) दूध पीता है , हाथ मु ँह धोता है , सींकी से दाँत साफ करता है , नये वस्त्र से हाथ को साफ करता है । उसके बाद , पत्नी तेरह गुिों से युक्त पाँच प्रकार के फलों समहत पान को चाँदी की तस्तरी में पमत को देती है । तत्पिात पमत पान से मु ँह को शुद्ध करने लगता है ।
िेश्या-िणकन विारत्नाकर के चतुथा कल्लोल में वमिात वेश्याविान का प्रसंग प्राचीनकाल से ही मममथलांचल की मस्त्रयों पर हावी पुरुर्ष वचास्ववाद को उजागर करता है ; साथ ही उसके नैमतक अधोपतन , दोयम नीमत , अमानवीय और असंस्कृ त मनोवृमत को भी । एक मववश स्त्री को सवाप्रथम पररवार और समाज से मवमछन्न कर उसे एक वमजात स्थान पर रखकर उसे नगरवधू बनाना , अन्धेरे में उसका उपभोग कर यौन सुख प्राप्त करना , पर उजाले में उसका बमहष्ट्कार और मतरस्कार कर समाज में प्रमतमष्ठत बने रहना , यह पुरुर्ष समाज का कै सा पुरुर्षत्व है ? यह उसकी कै सी मानवीयता है ?
“ बेटी बचाओ , बेटी पढ़ाओ ” के इस युग में एक स्त्री को सम्मान देने तथा एक स्वस्थ समाज के मनम ाि के मलए स्त्री-पुरुर्ष में सवाप्रथम पुरुर्ष को ही पूिा जोश , नैमतकता और यथाथा आत्मीयता के साथ अग्रसर होना पड़ेगा तभी समाज और स्त्री का क्रमश : मवकास और कल्याि संभव हो सके गा-
“ अथ िेश्यािण्णकना ।।.... नामे िेश्या देषु ” [ पृ . िं . 44-45 , पंसक्त िं 21-13 ]
प्रस्तुत पंमक्तयों में लेखक ने वेश्या का विान मकया है । चौराहा के समीप जो नगर है , उसमें सोना के मदवाल से मघरे हुए वगााकार अनेक भवन हैं ; मजसमें नगरवधू ( पाननामयका ), प्रमतनामयका , सखी , सैरसंधरी ,
Vol . 3 , issue 27-29 , July-September 2017 . वर्ष 3 , अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017