Jankriti International Magazine Jankriti Issue 27-29, july-spetember 2017 | Page 108

Jankriti International Magazine / जनकृ सत अंतरराष्ट्रीय पसिका ISSN : 2454-2725
आधुसनक सहंदी नािकों के सचंतन का स्िरुप
अजय कु मार िरोज पी-एच . डी . ( शोधाथी )
प्रदशानकारी कला मवभाग म . गां . अं . महं . मव . वधाा , महाराष्ट्र 442005
ई-मेल : aksaroj2510 @ gmail . com मो ॰ 7888275645
पररच्छेद के अंतगात मलखते हैं मक – मवलक्षि बात यह है मक आधुमनक गध – सामहत्य की परंपरा का प्रवतान नाटकों से हुआ ” इस बात पर हेनरी डब्ल्यू वेल्थ भारत का प्राचीन नाटक में मलखते है मक घटनाओं का कृ त भी मकतना मवलक्षि हैं । करुि रस अपनें में तो एक ही है लेमकन मवमभन्न पररमस्थमतयों में उनका अलग – अलग रूप हो जाता है जैसे पानी के अलग – अलग रूप भंवर , बुलबुले , तरंगे तो है लेमकन वास्तव में वे सब पानी ही है । इसमलए नाटक एक कला है जहां शब्दों को इस प्रकार से संगमठत मकया जाता है मक उसे प्रतुत करके आनंद की प्रामप्त तो होनी ही हैं उसके साथ – साथ अनुभवों के माध्यम से ज्ञान का मवस्तार होना हैं । मजस प्रकार शब्दों के मबना सामहत्य नहीं रचा जा सकता उसी प्रकार रंगों रेखाओं के मबना मचत्रकला की कल्पना नहीं की जा सकती , उसी प्रकार इस जीवंत तत्वों के मबना इन प्रदशानकारी कलाओं के अमस्तत्व की कोई पहचान नहीं की जा सकती । लेमकन सामहत्य और प्रदशानकारी कलाओं को अनुभूत करने की प्रमक्रया ठीक एक-दूसरे के मवपरीत मानी जाती है । नाटक यह मवधा प्रकृ मत से संमश्लसे मवधा मानी जाती हैं । इसी बात पर भरत मुमन जो कहा था वह इस प्रकार है “ न ऐसा कोई ज्ञान है , न मशल्प है , न मवधा है , न ऐसी कोई कला है , न कोई योग है न कोई काया ही है जो इस नाट्य में प्रदमशात न मकया जाता हो ” नाटक यह मवधा इस तरह मानी जाती है इसमें ऐसा कोई ज्ञान न हो जो की प्रस्तुत नहीं हुआ हो । मसंध , कला , योग इन सभी बातों का प्रयोग नाटक में होता है । इसके प्रस्तुमतकरि में अनेक कलाकारों सामूमहक योगदान होता है । जैसे – नाटक , लेखक , मनदेशक , अमभनेता , सज्जा-सहायक , मंच व्यवस्थापक , प्रकाश चालक तथा इनके पीछे काम करने वाले अनेक मशल्पी तथा कारीगर । इन सभी कलाकारों के मबना नाटक अधूरा हैं । उनके रचना में इन सबको सहयोग गुिात्मक होता है । दूसरी ओर
आधुमनक महंदी रंगमंच की शुरुआत सन 1857 से मानी जाती हैं । यह समय महंदी सामहत्य के इमतहास में भारतेंदु युग नाम पररमचत हैं । सामहत्य और रंगमंच का बहुत ही करीब ररश्ता हैं । यमद सामहत्य की पहली अमभव्यमक्त मवधा कमवता है तो नाटक एक उसी अमभव्यक्त मवधा को जीवंत रूप देने में सशक्त मवधा है । भारतीय नाटक की उत्पमत्त देखी जाए तो यह उत्पमत्त कब-कै से एवं मकन उपादानों के संयोग से हुई इस मवर्षय पर मवद्वानों में मंतव्य नहीं है । परन्तु मकसी मवद्वान् का मत भी अप्रमामिक मसद्ध करना अत्यंत कमठन हैं । क्योंमक नाटक समाज आईना ( दपाि ) होता हैं । समाज मनरंतर पररवतान शील रहता हैं । आज का सामामजक पररवेश अतीत के सामामजक पररवेश काफी अमधक बदला हैं । प्रेमचंद ने भी सामहत्य की बहुत सी पररभार्षाए दी है पर मेरे मवचार से उनकी सवोत्तम पररभार्षा जीवन की आलोचना है । डॉ . नगेन्द्र के शब्दों में “ सामहत्य का जीवन से गहरा संबंध है : एक मक्रया के रूप में दूसरा प्रमक्रया के रूप में । मक्रया रूप में वह जीवन की आमभव्यमक्त है प्रमतक्रया रूप में उसका मनम ाता और पोर्षक ” इसमलए सामहत्य मानव सभ्यता की मवकास का घोतक माना जाता है । आधुमनक सामहत्य के आरम्भ में ही नाटक इस मवधा का प्रारंभ हुआ । नाटक मवधा का उदभव और मवकास का मववेचन करते हुए रामचंद्र शुक्ल इमतहास में “ आधुमनक गध – सामहत्य परम्परा का प्रवतान शीर्षाक Vol . 3 , issue 27-29 , July-September 2017 . वर्ष 3 , अंक 27-29 जुलाई-सितंबर 2017